वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1345
From जैनकोष
शनै:शनै:र्मनोऽजस्रं वितंद्र: सह वायुना।
प्रवेश्य हृदयांभोजकणिकायां नियंत्रयेत्।।1345।।
इस पवन का अभ्यास करने वाले योगी प्रमादरहित होकर बड़े ही प्रयत्न से अपने मन को वायु के साथ-साथ मंद-मंद निरंतर हृदय कमल की कर्णिका में प्रवेश कराकर वहाँ ही नियंत्रण करें। जैसे हवा को खिंचा और साथ ही साथ ऐसा स्वभाव रहे कि जो हवा भीतर गयी और इसमें रुक गयी, ऐसा मन हो जाय हवा के साथ-साथ तो जैसे हवा एक जगह रुकती हे उसी तरह मन रुक जाता है। प्रयोग करके भी कभी देखना। यद्यपि हवा आँखों नहीं दिखती, पर सोचने से उसका अनुमान हो जाता है, और ऐसा लगता है कि हम इस हवा को देख रहे हैं, हवा लेवें तो उसे देखते रहें यह खिंची है उस हवा को देखते रहें। देखने जैसा मन बना लें तो उस पद्धति से यह मन बाहर में रुक जाता हे और अपने आपमें नियंत्रित हो जाता है। यह ध्यान के साधना की बात बताई जा रही है। जैसे यह एक काम सा हो गया, एक काम पड़ा है यह करने का कि हम प्रत्येक श्वास को जब लें तो तब भी उसे देखें और मालूम करें कि यह ली श्वास। जब हवा को रोके तो भीतर में मालूम करते रहें कि यहाँ श्वास रोक ली। जब श्वास छोड़ें तो भी देखते रहें, मन द्वारा सोचते रहें कि यह श्वास गयी। इससे होता क्या है कि और अधिक मन न रुके तो कम से कम श्वास में मन आयगा, उस स्थिति में बाहरी विकल्प दूर हो जाते हैं। यह एक बाहरी क्रिया है। फिर और अधिक यत्न करें तो ऐसा कर लें कि मन को ऐसा एक जगह रोक लें कि किसी भी मोह ममता में यह मन न लगे। तो इस तरह वायु के साथ अपने मन को उस हृदय कमल की कणिका में नियंत्रित करें और जिस हृदय में कमल के आकार की रचना है। 8 पंखुड़ियों में कमल है तो वहाँ यह ध्यान करें कि अब हवा को इस कली में रोका, अब दूसरी कली पर ले गए। केवल एक मन का विचार बनाया जाता है और यह भी एक प्रभाव है कि हम फिर जैसा मन से सोचें हवा भी वहाँ-वहाँ चलती जाती है। इतना तक प्रभाव हो जायगा तो हृदय की कर्णिकाओं में उस हवा को रोकें और उसके साथ-साथ मन में रोकें।