वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1352
From जैनकोष
अचिंत्यमतिदुर्लक्ष्यं तन्मंडलचतुष्टयम्।
स्वसंवेद्यं प्रजायेत महाभ्यासात्कथंचन।।1352।।
यह जो चार प्रकार का मंडल है वह अचिंत्य है, कठिनाई से लक्ष्य में आने वाला है। इस वायु को हर एक कोई पहिचानता है कि निकल रही है किंतु वह किस स्वरूप से निकल रही है जिससे यह जान लिया जाय कि अमुक कार्य सिद्ध होगा, क्लेश न होगा, ऐसी बात समझना एक बहुत कठिन सा है, किंतु अभ्यास उसका महान बन जाय तो वह स्वयं अपने आपके द्वारा समझ में आ जाता है। वह चार प्रकार का वायुमंडल है, समस्त निमित्त ज्ञानों का एक आधार है, जिससे रोगी का रोग किस प्रकार का है, ठीक होगा अथवा न होगा और वह जीवन-मरण जन्य सभी प्रकार के प्रश्नों का समाधान इस मंडल का सही अभ्यास करने वाला पुरुष दे दिया करता है।