वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1353
From जैनकोष
तत्रादौ पार्थिवं ज्ञेयं वारुणं तदनंतरम्।
मरुत्पुरं तत: स्फीतं पर्यंते वह्निमंडलम्।।1353।।
उन चार प्रकार के वायुमंडलों में प्रथम तो है पृथ्वीमंडल, द्वितीय है जलमंडल, तृतीय है पवनमंडल और चतुर्थ है अग्निमंडल। इस प्रकार चार के नाम कहे― पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु। ये सब श्वासों के ही नाम हैं। जो मुख नासिका से श्वास निकलती है तो वह किस ओर बहती है, कितनी दूर तक उसका प्रवाह है और वह वायु कुछ ऊपर की लैन रखकर बह रही है या सीधी लैन रखकर बह रही हे, और कितनी तेजी से बह रही है? इन बातों को पहिचानकर मंडल की पहिचान होती है, यह एक विज्ञान का प्रमाण है। अध्यात्म शास्त्र में तो इस मंडल की सिद्धि तो होती है, पर उससे प्रयोजन कुछ नहीं है। प्राणायाम से तो अध्यात्म रुचि वाले मुमुक्षु पुरुष को केवल उसे चित्त स्थिर रखने का प्रयोजन है, जिससे विषयकषायों में अन्य बातों में यह चित्त न जाय। तो ये चार प्रकार के मंडल क्रम से बताये गए हैं।