वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1357
From जैनकोष
स्फुलिंगपिंगलं भीममूर्ध्वज्वालाशतार्चितम्।
त्रिकोणं स्वस्तिकोपेतं तद्वीजं वह्निमंडलम्।।1357।।
अब अग्निमंडल का स्वरूप कहते हैं अर्थात् अपनी ही नासिका से जो श्वास निकलती है, इस प्रकार की जो श्वास निकली उसे अग्निमंडल कहते हैं। वह किस प्रकार का होता? जिसका वर्ण अग्नि के समान लाल हो, रौद्रगमन और अर्द्धगमनस्वरूप ज्वालों के त्रिकोण सहित अग्नि बीज का मंडल अग्नि मंडल समझियेगा। अग्नि का स्वरूप चूँकि रक्त है तो अग्निमंडल जैसे वायु के निकलते समय वह पुरुष यदि अपनी आँखों को बंद करके आँख और नाक के संधि स्थान पर दृष्टि भीतर से लगाकर सुनियेगा तो वहाँ जो रक्त वर्ण जिसका बिंदु विदित होगा उससे भी पहिचान लिया जाता है कि इस समय यह पुरुष अग्निमंडल की श्वास में चल रहा है, वह रौद्ररूप है अर्द्धगमनस्वरूप है। जिसमें से सैकड़ों ज्वालायें चल रही हों वह अग्नि बीज से मंडित है ऐसा यह अग्निमंडल का स्वरूप कहा गया है।