वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1370
From जैनकोष
वामेन प्रविशंतौ वरुणमहेंद्र समस्तसिद्धिकरौ।
इतरेण नि:सरंतौ हुतभुक्पवनौ विनाशाय।।13670।।
यह तो एक सामान्य कथन किया है। अब विशेषता में यों समझिये कि धीमे स्वर से, चंद्रस्वर से, नासिका के बायें छिद्र से जब श्वास प्रवेश कर रहे हों, हवा भीतर जा रही हो और मिल जाय पृथ्वीतत्त्व और जलतत्त्व की वायु तो साधारण कार्य के समान सिद्धि को उत्पन्न करने वाली वायु है और जहाँ दाहिने स्वर से अग्नि और वायुतत्त्व की वायु निकल रही हो तब समझना चाहिए कि यह विनाश के लिए है, आपत्ति के लिए है। प्रथम तो यह सामान्य वर्णन किया था कि श्वास लेते समय कोई प्रश्न पूछता है तो उसकी सिद्धि बताया और अब उसी की एक विशेषता बतायी जा रही है कि बायें स्वर से पृथ्वीतत्त्व और जलतत्त्व की श्वास निकली तो वह सिद्धि करती है। ऐसे ही जलतत्त्व की वायु यदि छिद्र से प्रवेश करती है तो वह भी सिद्धि करने वाली है लेकिन दाहिने स्वर से और अग्नि वायु की पवन यदि निकल रही हो तो समझिये कि वह विनाश करने के लिए है। इस संबंध में कुछ ऐसा तो अनुभव होता ही होगा या दृष्टि जाय तो अनुभव कर लीजिए कि सुगम रीति से बनावट न करके यदि इस प्रकार की श्वास होती है तो उनका फल वैसा होता है। प्रथम बताया गया था कि जो स्थिर कार्य हो उन्हें वाम स्वर शुभ बताता है। और जो चलने के कार्य हों उन्हें दक्षिण स्वर ठीक कहता है। इस कारण लोग रात्रि को जगने पर सुबह उठने के लिए सर्व प्रथम दाहिना पैर नीचे रखते हैं, दाहिने पैर का ध्यान प्रारंभ करते हैं, फिर चलने में दोनों आते हैं, पर दक्षिण स्वर का बाम अंग का संबंध चलना फिरना आदि चलित क्रिया के लिए हैं। और कोई स्थिर कार्य की बात सोची जाय तो वह चलतत्त्व उस सोचने पर सिद्धि प्रदान करता है। इस प्रकार चार मंडलों का शुभ और अशुभ संक्षेप में यह कहा गया है। अब इसी संबंध में कुछ और विशेष बात चलेगी जिससे एक स्वर की पहिचान से अपने और निकट पर के शुभ अशुभ भविष्य को हम जान सकें।