वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1395
From जैनकोष
नृपतिगुरुबंधुवृद्धा अपरेऽप्यभिलषितसिद्धये: लोका:।
पूर्णांगे कर्तव्या विदुषा वीतप्रपंचेन।।1395।।
यह वशीकरण प्रयोग है। राजा, गुरु, बंधु अन्य लोग भी अपने मनोवांछित कार्यों के लिए वश करना हो तो भरे स्वर में प्रपंचरहित, छलरहित पंडित पुरुषों को चाहिए कि वे इष्टदेव की आराधना करें, अर्थात् भरा स्वर चलता हो उस समय किसी के बात करने से वह प्रभावित हो जाया करता है। यद्यपि स्वर श्वास एक मनुष्य में उत्पन्न हुई है और वह है मुद्रा की पर्याय, शरीर का परिणमन, लेकिन जब शरीर में यह आत्मा बंधा पड़ा हुआ है तो इसके भावों का और शरीर के प्रभावों का कुछ निमित्त संबंध भी रहता है। जैसे कि जब कोई मनुष्य क्रोध करता है तो उसकी आँखे लाल हो जाती हैं, ओंठ फड़कने लगते हैं, तो भाई बतावो कि आत्मा ने तो क्रोध किया और शरीर में यह क्या बन रहा है? तो जब शरीर और जीव एक बंधन में पड़े हों तो शरीर की हरकत होने पर जीव में कुछ हरकत होती है, विकार होता है। कोई पुरुष मायाचार करने वाला हो, छल चुगली, यहाँ की बात वहाँ फैलाये, वहाँ की बात यहाँ फैलाये तो उसकी मुद्रा दब्बूपन जैसी होगी। एक शूरवीरता रहित होगा तो किया तो जीव ने अपराध और शरीर पर प्रभाव पड़ता है। तो जीव जैसे परिणाम करता है उसके अनुकूल असर पड़ता है शरीर पर। इसी तरह कोई शुभ बात गुजरना हो अथवा अशुभ बात गुजारना हो उसके अनुकूल उसका संकेत करने वाली पवन चलती है, श्वास निकलती है, और जो इस स्वरविज्ञान के जानकार हैं उन स्वरों से इन सबका परिचय प्राप्त कर लेते हैं कि क्या होगा। ये अष्टांग जो महानिमित्त हैं उन निमित्तों में से एक निमित्त है यह भी श्रुतज्ञानका विषय है। यद्यपि शांति के अभिलाषी मुमुक्षु पुरुष को इन लौकिक चमत्कारों से कोई प्रयोजन नहीं है, लेकिन चमत्कार भी तो आत्मा की विशुद्धि से प्रकट होते हैं। जब आत्मा निर्मल बनता है, ध्यान में अधिक बढ़ता है तो उसमें लौकिक चमत्कार भी अपने आप प्रकट होते हैं। तो ध्यान की साधना में एक यह साधन प्राणायाम का बताया जा रहा है। इस प्राणायाम की साधना से आत्मा में एक ऐसे विज्ञान की स्फूर्ति होती है कि वह स्वरों को निरखकर दूसरों का शुभ अथवा अशुभ बता सकता है। इस संबंध में अब तक ध्यान देने योग्य बात इतनी कही गई है कि प्राणायाम में 3 प्रयोग होते हैं― पूरक, कुंभक, रेचक। जिसे अपने शरीर की साधना हो वह इन तीन प्रयोगों को करे और फिर उसे नाभिस्थान में भीतर रोके। जितना रोका जा सके, रोकने के बाद फिर धीरे-धीरे श्वास से उस हवा को छोड़े तो यह है प्राणायाम की विधि। इससे जितना अधिक वायु को रोकने की प्रकृति बनेगी उतनी ही मन की एकाग्रता होगी। तो विधिविधान में फिर इस प्राणायाम की सुनिये कि साधना तो हुई, पर साधना होने पर भी इस विषय का परिचय न होने से शुभ अशुभ न बताया जा सकेगा। अब इससे शुभ और अशुभ बात बताने के स्वरों का भी संकेत समझ लेना चाहिए। स्थिर कार्यों में, शांति के कार्यों में, बहुत बड़े कार्यों में जो शांतिपूर्वक बनना चाहिए उनमें बामस्वर का श्वास निकलना शुभ माना है और जितने भी चल संपत्ति के कार्य हैं― लौकिक, यश, इज्जत, प्रतिष्ठा आदिक जितने भी ये कुछ समय के लिए कार्य हैं वे कार्य सिद्ध कहना चाहिए। यदि दक्षिण स्वर से श्वास निकलती हो इसमें भी चारों मंडलों की परीक्षा करें, फिर उन मंडलों के हिसाब से शुभ अशुभ सगुन असगुन की बात बतावें। इस प्रकार स्वरविज्ञान में कुछ भूत की, कुछ भविष्य की बातों का शुभ अथवा अशुभ है इस प्रकार से बतला सकते हैं। सीधा लाभ तो प्राणायाम से यह है कि मन की चंचलता मिट जाती है और ध्यानोपयोग ज्ञानस्वभाव मेंलगता है। मुमुक्षु का प्राणायाम की साधना में इसी कारण उपयोग चला करता है।
(इसके बाद के 104 श्लोकों के प्रवचनों की कापी गुम गई है, अत:1495 श्लोक से प्रवचन प्रकाशित हो रहे हैं।)
(1395 के बाद के 104 श्लोकों के प्रवचनों की कापी गुम गई है, अत:1495 श्लोक से प्रवचन प्रकाशित हो रहे हैं।)
यदज्ञानाज्जन्मी भ्रमति नियतं जन्मगहने,विदित्वा यं सद्यस्त्रिदशगुरुतो याति गुरुताम्।
स विज्ञेय: साक्षात्सकलभुवनानंदनिलय:,परं ज्योतिस्त्राता परमपुरुषोऽचिंत्यचरित:।।1495।।
जिस पुरुष ने अपने आत्मा का स्वरूप नहीं जाना उस पुरुष ने परमात्वतत्त्व को भी नहीं जाना।कारण यह है कि परमात्मा हो या निज आत्मा हो आत्मा है, चैतन्यस्वरूप है। जब तक उस चैतन्यस्वरूप की सुध नहीं होती है तब तक न उसने परमात्मा न आत्मा जाना। इस कारण से निज आत्मतत्त्व को जानना चूँकि सरल है, खुद के ही निकट है, खुद है, अपने आपको पहिचान सकता है। अत: आत्मतत्त्व को जाने जिससे कि परमात्मा का तत्त्व भी समझ में आये। आत्मा तीन अवस्थावों में रहता है― बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा। अपने आपके स्वरूप से बाहर जो परतत्त्व हैं, देह हैं, रागादिक भाव हैं उनमें जो आत्मारूप से प्रतीति करे उस जीव को बहिरात्मा कहते हैं। और जो बाहर के तत्त्वों में आत्मप्रतीति न करके अपने ही अंत:स्वरूप में ‘यह मैं हूँ’ इस प्रकार आत्मप्रतीति करे उसे अंतरात्मा कहते हैं। और अंतरात्मा बनकर अपने ही अंत: विराजमान परमब्रह्मस्वरूप की आराधना करके जो समस्त कर्ममलों का क्षय कर देते हैं, घातिया कर्मों का विनाश कर देते हैं और जो अष्ट कर्मों का भी नाश कर देते हैं वे परमात्मा कहलाते हैं। तो बहिरात्मा हो या अंतरात्मा हो या परमात्मा हो चैतन्यस्वरूप सबका है। उस चिदानंदस्वरूप के नाते वे सब एक ही चैतन्य जाति के हैं। मैं चेतन हूँ, ज्ञानदर्शनात्मक हूँ, आनंदस्वरूप हूँ, इस प्रकार अपने आपकी सुध आये तो परमात्मा का भी ज्ञान हुआ समझिये। अपने आपमें अपने आपका बोध नहीं है तो वह भी परमात्मा का क्या चिंतन करे? यों तो दुनिया के सभी लोग कहते हैं― भगवान है। जब दु:ख आता हे तो सभी लोग भगवान का स्मरण करते हैं। कुछ कल्याण की इच्छा होती है तो भगवान की उपासना में जुटते हैं, लेकिन भगवान को समझा किसने? जिसने आत्मा के सहज स्वरूप को नहीं जाना उसने परमात्मा को समझा ही नहीं है। आत्मतत्त्व के जाने बिना जो लोग परमात्मा की, भगवान की चर्चा करते हैं उनके उपयोग में भगवान या तो मनुष्य के रूप में या मनुष्य से बड़ा विलक्षण चार हाथ हो गए हों, कई मुँह हो गए हों, भयंकर सर्प भी लिपटे रहते हैं, बड़े विचित्र वेष-भूषा में निरखते रहते हैं। जैसे बरात बहुत सी हैं उसमें दूल्हे का भेष विलक्षण होता है। और इतना विलक्षण कर देते हैं कि खजूर के पत्ते सिर पर लदे हैं और पत्तियों से कसे हुए हैं। कुछ भेष विलक्षण कर दिया जाता है ताकि, लोक में यह पहिचान हो कि यह दूल्हा है। यों ही लोगों की कल्पना में कोई विलक्षण भेष वाला भगवान है। जो मनुष्यों से कुछ निराला दिखे, सर्प लपेटे हों, भस्म लपेटे हो, खप्पर बाँधे हो, डमरू, त्रिशूल, चक्र कोई विलक्षणता ऐसी थोपी गई है कि जिससे मालूम पड़े कि यह मनुष्यों से निराला कोई खास व्यक्ति है।
भगवान उनके उपयोग में रहता है जिन्होंने अपने आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय किया है। वे पुरुष सशरीर परमात्मा में भी , अरहंत परमेष्ठी में भी, जिनका कि समवशरण के रूप में मध्य गंध कुटी में विराजमान मनुष्यवत् किंतु परमौदायिक शरीर में बस रहे हैं उस परमात्मा में भी न तो शरीर को निरखते हैं, किंतु आत्मा में जो निर्दोषता है, सर्वज्ञता है, बड़ाई का विकास है उसको परमात्मा निरखते हैं। जिसने अपने आत्मा का परिचय किया है वह ही परमात्मा को जानता है, इस कारण आत्मा जैसा है तैसा प्रथम निश्चय को करो। क्या इस आत्मा का सहजस्वरूप नरक तिर्यंच मनुष्य देव रूप भ्रमण करते रहने का है। ये तो विकार हैं, माया है, यह एक विचित्र औपाधिक परिणमन है, उस रूप मैं नहीं हूँ। क्या मुझमें जो कषायें उत्पन्न होती हैं, रागादिक भाव मन मोह किया करते हैं― क्या इस रूप मैं हूँ? अरे ये तो मलिन भाव हैं, औपाधिक भाव हैं, ये तो होते हैं और क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। भले ही होते हैं, ये भी नष्ट होते हैं। इनके होने की परंपरा बनती रहती है, यह तो अकल्याण की बात है। पर पर्याय के स्वरूप को निरखा जाय तो कोई भी परिणमन रागद्वेष ईर्ष्या विचार मनन चिंतन किसी भी प्रकार का परिणमन उत्पन्न होने के बाद दूसरे समय में खतम होते हैं, वे मैं नहीं हूँ, मैं देह नहीं। यह एक असमानजातीय व्यंजन पर्याय है। मैं रागादिक भाव नहीं। मैं तो एक सहज चैतन्यशक्ति मात्र हूँ, एक मेरा स्वरूप है, स्वभाव है, इस प्रकार जिसने अपने आपके आत्मस्वरूप का निर्णय किया है वह ही परमात्मा में यह तत्त्व निरख सकता है। यही स्वरूप जहाँ पूर्ण निर्दोष होता है, पूर्ण विकास को लिए हुए होता है वही परमात्मतत्त्व है। यह आत्मा परमात्मा बन सकता है या नहीं इस संबंध में विचार करें तो यह बात स्पष्ट है कि जब आत्मा में रागादिक बढ़ते हुए, घटते हुए लोक में पाये जाते हैं, किसी आत्मा में रागभाव कम हैं, किसी में और कम हैं, और वे रागादिक स्वरूप नहीं हैं, विभाव हैं, पराश्रयज हैं, पर का आलंबन लिए बिना नहीं बनते हैं। तो जो पराश्रित हैं, जिनमें घटा बढ़ी देखी जाती है तो यह अवश्य संभव है कि कोई आत्मा ऐसा भी बन सकता है कि रागादिक भाव उसमें बिल्कुल नहीं रहे। जब हम देखते हैं कि आत्मावों में यह ज्ञान और आनंद किसी में कम है, किसी में अधिक है, जितना-जितना पर का संबंध हटाया जाय उतना-उतना आनंद बढ़ता है। तो घर के संबंध बिना जो चीज बढ़ती है वह स्वभावरूप है। जब ज्ञान की वृद्धि हम अनेक आत्मावों में निरखते हैं तो यह भी है कि ऐसे भी आत्मा हो जाते हैं कि जिनमें ज्ञान का पूर्ण विकास है। यह सब निर्णय वह ज्ञानी करता है जिसने अपने आपके सहज चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व की प्रतीति की है। अपने शुद्ध स्वरूप के बोध बिना परमात्मा का निर्णय हो नहीं सकता। कोई आत्मा को जानता न हो, परमात्मा का निर्णय करने जाय तो वह परमात्मा को कर्ता के रूप में, अवतार लेने के रूप में, नाना चरित्र दिखाने के रूप में परमात्मा को ग्रहण करता है। पर भला बतलावो कि परमात्मा को नाना चरित्र दिखाने की क्यों इच्छा हुई? यहाँ जब इच्छा से दु:खी हैं तो इच्छा का जो काम है, स्वरूप है, इच्छा का जो तो प्रभाव है वह तो रहेगा ही। तो जैसे हम यहाँ दु:खी हैं वैसे ही परमात्मा भी दु:खी हो गया। जैसे हम यहाँ दु:खों के कारण नाना चरित्र करते हैं यों ही दु:ख के कारण उन दु:खों की शांति के लिए उसने भी चरित्र किया। भले ही इतना अंतर रहे कि हम छोटे कार्य कर सकते हैं, उसने कोई बड़ा कार्य किया हो, पर परमात्मत्व क्या हुआ? जिसने आत्मा के स्वरूप को न जाना वह परमात्मा को नाना भेषों में निरखा करता है और ऐसा निरखने से उन्हें अशांति ही रहती है। चूँकि आत्मस्वरूप के जाने बिना परमात्मा के स्वरूप का निर्णय नहीं होता, अत: आत्मस्वरूप अवश्य जानना चाहिए।