वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 141
From जैनकोष
यदैक्यं मनुते मोहादयमर्थै: स्थिरेतरै:।
तदा स्वं स्वेन बध्नाति तद्विपक्षै: शिवी भवेत्।।141।।
बंधन का मुख्य हेतु―जब यह जीव मोहवश होकर चेतन अथवा अचेतन पदार्थों से अपनी एकता मानता है उस समय यह जीव अपने ही द्वारा अपने आपको बांधता है, जीव का बंधन परवस्तु में स्नेह पहुँचना है, परवस्तु में मोह होना एतावन्मात्र बंधन है। जीव अमूर्तिक है, इसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श नहीं है। यह पुद्गल की भांति अथवा जैसे रस्सी आदिक एक दूसरे से बँध जाती हैं इस तरह यह जीव किसी पदार्थ से बँध जाता हो ऐसा तो शक्य है नहीं, किंतु यह जीव स्वयं परवस्तु में राग अथवा मोह करके अपनी ही कल्पनाओं से अपने ही आपको परतंत्र बना लेता है। जैसे यही परिवार में आप स्त्री से बच्चों से किसी से बँधते तो हैं नहीं जैसे कोई एक मूर्त पदार्थ दूसरे मूर्त पदार्थ से स्वयं बँध जाता है, रस्सी-रस्सी में बँध जाय ऐसा कुछ बंधन तो आपका है नहीं वह जीव जुदा है, आप जुदे हैं। उनका सुख दु:ख न्यारा है, आपका सुख दु:ख अलग है। आपकी कल्पनाएँ आपमें होती हैं, उनकी कल्पनाएँ उनमें होती हैं, कोई संबंध नहीं है फिर बंधन क्या? जो जीव अपने आपकी कल्पनाओं में उन कुटुंबी जनों से एकता को मानता है, यह मेरा है, यह ही तो मैं हूँ, इसमें मेरा बड़प्पन है, इससे ही मेरा हित है, ऐसी कल्पनाएँ करके कोई एकता माने उसही का नाम बंधन है, क्योंकि इन कल्पनाओं में यह जीव अपनी ओर से आप परतंत्र हो गया है।
मोह के बंधन पर एक दृष्टांत―एक घटना है―एक गृहस्थ घर छोड़कर व्यापार के लिए बहुत दूर चला गया। वहाँ उसे 14 वर्ष व्यतीत हो गए। वह एक वर्ष का बालक घर छोड़कर गया था। अब माँ कहती है कि बेटा तुम 15 साल के हो गए, समझदार हो, जावो अपने पिताजी को अमुक शहर से अमुक जगह से लिवा लावो। वह चला अपने पिता को लिवाने। उधर से वह उस लड़के का पिता भी अपने घर के लिए चला। दोनों ही रास्ते में एक शहर की धर्मशाला में पाप-पास के कमरे में ठहर गए। दोनों ही एक दूसरे को नहीं पहिचानते। रात को उस लड़के के पेट में बड़ा दर्द उत्पन्न हुआ। वह खूब चिल्लाये। उसकी चिल्लाहट से उस पुरुष को नींद न आए, सो चपरासी से कहा कि इस लड़के को धर्मशाला से बाहर कर दो, हमें नींद नहीं आती। चपरासी बोला―रात्रि के 12 बज गए हैं, कहाँ इसे भेज दें। आखिर उसका दर्द बढ़ गया और उस लड़के का वही हार्ट फेल हो गया, मर गया, यद्यपि उस पुरुष के पास पेट दर्द की दवा थी, पर वह उस लड़के को दे नहीं सका। जब घर जाता है तो स्त्री से पूछता है कि लड़का कहाँ है? तो स्त्री कहती है कि लड़का तो तुम्हें ही लिवाने गया है। वह चला लड़के की खोज में। पता लगाते-लगाते उस धर्मशाला में भी पहुँचा जहाँ दोनों ठहरे थे। मैनेजर से पूछने पर उस पुरुष ने जाना कि ओह वह मेरा ही पुत्र था जो मेरी आँखों के सामने मरा था। वह पुरुष मूर्छित होकर गिर पड़ा। देखो मोह की बात कि जब पुत्र सामने मरा तब एक भी आँसू न गिरा और जब सामने नहीं हैं तो बेहोश होकर गिर पड़ा। तो किसी को दु:ख देने वाला कोई दूसरा नहीं होता। जहाँ खुद का ही ज्ञान उल्टा चलता है वहाँ दु:ख हो जाता है।
सुख दु:ख के प्रसंग में ज्ञानलीला का प्रभाव―भैया ! कितने ही उपद्रव आ रहे हों, पर अपना ज्ञान यदि सही है तो वे सारे उपद्रव दूर हो जाते हैं। और चाहे कोई पुरुष कितने ही सुख के वातावरण में हो, धनिक भी है, महल भी अच्छे बने हैं, कुटुंब भी योग्य है, आराम से रहता है, लेकिन कल्पनाएँ उठायी कि अभी मेरे पास क्या धन है? क्या ठाठ है, यह तो कुछ भी नहीं है। अमुक देखो कितना महान है, अथवा मेरी इज्जत, मेरा नाम अभी देश भर में कहाँ हुआ है, कहाँ सुख है, चिंताएँ करें, तृष्णा बढ़ायें तो इतने बड़े अच्छे साधनों में रहकर भी वह दु:खी हो गया। कौन दु:खी करने वाला है।
ज्ञान की संभाल में दु:ख से छुटकारा―जिसके बाह्यसमागम संपदा कुछ भी नहीं है, खाने का भी साधन नहीं है, किसी प्रकार मांगकर खाये, गुजारा करे लेकिन ज्ञान यदि सही है, वस्तु के शुद्धस्वरूप को समझता है तो वह पुरुष ज्ञान के बल से ऐसी गरीब स्थिति में भी प्रसन्न है, सुखी है। बड़े-बड़े समागम वाले परपदार्थों में आत्मीयता एकता मानने से दु:खी है। हमारा दु:ख कोई दूसरा मेटने न आ जायेगा। किसी अन्य में सामर्थ्य नहीं है कि मेरा दु:ख दूर कर जाय। लोग अपना दु:ख दूर करने के लिए दूसरों से प्रार्थना करते हैं, इच्छा करते हैं, सेवायें करते हैं आशा रखते हैं, लेकिन कितने ही अन्य उपाय कर लें दु:ख दूर न होंगे। अथवा किसी उपाय से कुछ दु:ख का शमन हो गया तो उससे क्या सिद्धि है? थोड़ी देर बाद और तरह का दु:ख उखड़ पड़ेगा। दु:ख मूल से नष्ट हो, इसका उपाय खुद को ही करना होगा और वह उपाय भी केवल ज्ञान से संबद्ध होगा। अन्य पदार्थों की संभाल से दु:ख दूर नहीं हो सकते।
स्वयं की संभाल से दु:ख के अभाव होने का कारण―अपनी ही संभाल से अपना दु:ख दूर होगा, इसका कारण यह है कि यह जीव अकेला है, जीव ही क्या, प्रत्येक सत् अकेला हुआ करता है। सत् का स्वरूप ही यह है कि जो केवल स्वमात्र रहे उसही का नाम सत् है। ऐसी अपने विशुद्ध अकेलेपन की भावना हो तो बंधन से छूटता है और परपदार्थों में अपनी एकता का बंधन हो तो वह बाँधता है। बंधन ही दु:ख है और मुक्ति ही सुख है। जिन्हें बंधन के दु:ख से बचना हो उनका कर्तव्य है कि वे अपने निर्वाधस्वरूपमात्र अपने अंतस्तत्त्व का श्रद्धान करें, वहाँ ही ज्ञान लगायें और उस रूप ही आचरण करें, हम कुछ भी करे, जो भी बंधन में आये आने दो। ज्ञान का स्वरूप है यह कि सब कुछ ज्ञान में आ गया, लेकिन रागद्वेष न करें, मोह न करें, यह आपके हाथ की बात है।
स्वभाव की उपासना―भैया ! सब स्वतंत्र पदार्थ हैं, पड़े हैं, दिख रहे हैं क्या आप अपना यह ज्ञान नहीं बना सकते कि ये पदार्थ इस क्षेत्र से भी न्यारे हैं, पिंड से भी अलग हैं। मेरा परिणमन मुझमें ही है। किसी भी अन्य से मेरा कोई संबंध नहीं है, ऐसी जानकारी क्या आप बना नहीं सकते? बना तो सकते हैं, पर न बनायें, आलस्य करें, मोक्ष मार्ग में अनुराग न करें तो यह एक व्यक्तिगत निज की बात है जो न कुछ सी है। व्यर्थ क्यों परपदार्थ में मोह और राग की निरंतर कल्पनाएँ किया करते हैं। एक ही निर्णय रखिये―जो इन परपदार्थों में ममता मोह आत्मीयता, एकता करेगा वह अपने को अपने से बाँध लेता है और उसके विरुद्ध अर्थात् स्वभाव के अनुकूल अपना ज्ञान आचरण और श्रद्धान करे तो वह छूट जाता है।