वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1565
From जैनकोष
यावदात्मेच्छया वत्ते वाक्चित्तवपुषां ब्रजम्।
जन्म तावदमीषां तु भेदज्ञानाद्भवच्युति:।।1565।।
यह प्राणी जब तक मन, वचन, काय के समूह को आत्मा की इच्छा से ग्रहण करता है, मन से कुछ सोचा, मान लो यह ही मैं हूँ, यह ही मेरी करतूत है, ऐसा सोचना मेरा काम है और इस चिंतन में मेरी भलाई है, मुझे सुख होगा। उस मन की क्रिया से बाहर अलग कुछ भी अपने आपके बारे में नहीं विचार सकता अज्ञानी जीव। यह अज्ञानी जीव वचनों का व्यवहार करता है। जिस कषाय को लिए हुए बैठा है, जिसमें यह वचन निकालाहै, स्व को नहीं छोड सकता, उसे ग्रहण किए हुए है, यह ही तो मेरा स्वरूप है, यही तो मेरी पोजीशन है, यही तो मेरा नाम है। उस कषाय को नहीं छोड़ता, और उन कषायों के कारण जो वचन बोलने में आ जाते हैंउन वचनों को नहीं छोड सकते। मुझे ही तो कहा, मुझे ही तो लोग कह रहे हैं, यों वचनों में भी आत्मीयता लिए हुए है। अरे मेरी बात गिर जायगी क्या? न गिरनी चाहिए। इससे ही वह अपनी बरबादी समझता है। पर बात किसी की है भी क्या? आत्मा तो वचनों से परे है, नाम किसी का है ही क्या? लेकिन नाम में मरे जा रहे हैं। नाम के पीछे अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार रहते हैं। अरे इस आत्मा को तो कुछ नाम ही नहीं है। जब तक उस निर्नाम आत्मा का स्वरूप न समझेगा तब तक कल्याण का मार्ग न मिलेगा। तू अपने आपको नामरहित देख। मैं ऐसा विशुद्ध चैतन्यमात्र हूँ जिसका कोई नाम ही नहीं है। जो में हूँसो समस्त जीव हैं। जो प्रभु भगवंत सिद्ध हैं सो ही मैं हूँ। सो ही समस्त जीव हैं, हाँ पर्याय में फर्क जरूर है। अरहंत सिद्ध भगवंत तो रागादिक दोषों से रहित हैं और हम लोगों के परिणमन में रागादिक चल रहे हैं, लेकिन चीज स्वरूप, स्वभाव वही है, जो अरहंत का है सो मेरा है। कहाँनाम है? प्रभु का नाम नहीं है और अपना भी नाम नहीं है। प्रभु जो महावीर है, महावीर नाम जो ज्ञात होता है वह तो प्रभु नहीं। वह तो देहपिंड है। जो त्रिसलानंदन है, सिद्धार्थ का पुत्र है, इक्ष्वाकुवंश का है, 7 हाथ का शरीर है, स्वर्ण रंग का देह है, यों जो-जो उनके बारे में जाना गया वह भगवान नहीं है, और जो भगवानहैं उनके उस आत्मा में जो विशुद्ध आत्मा है, परमात्मा है, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति अनंत आनंदमय आत्मा है सो परमात्मा है। तो परमात्मा भी नामरहित है। जहाँ एक विशुद्ध चैतन्यपूर्ण ज्ञानविकास है वहाँ दोषों का सर्वथा अभाव हो जाता है ऐसा विशुद्ध चैतन्य वह परमात्मा है। सो जो परमात्मा है सो मैं हूँ, जो मैं हूँसो परमात्मा है। तो परमात्मा की उपासना तब तक नहीं हो सकती जब तक अपने आत्मा के स्वरूप का परिचय न हो।
आत्मस्वरूप का भान है तो परमात्मा का भी भान है और आत्मस्वरूप का भान नहीं है और जहाँ अपना ही भान नहीं, परमात्मस्वरूप का भी भान नहीं वहाँ यह जीव यदि प्रभु की भक्ति भी करेगा तो इस रूप से करेगा कि तुम हमारा दु:ख दूर कर दो, तुम हमारी नौकरी लगा दो, व्यापार बढ़ा दो, संतान उत्पन्न करा दो, इस रूप से प्रभु की भक्ति करेंगे। इस रूप में प्रभुभक्ति वह नहीं कर सकता कि भगवान के उस विशुद्ध गुण को जानकर मैं अपने आपमें भी उस विशुद्ध स्वरूप का अनुभव करूँ। यह बात जब तक न बनेगी तब तक इस जीव का जन्म मरण बढ़ता जाता है। तब तक अपने विशुद्ध स्वरूप का भान नहीं होता तब तक यह जीव मन, वचन, काय की क्रियावों का ही पोषण करता है। जब तक मन, वचन, काय को अपनी इच्छा से ग्रहण करता है तब तक इसका जन्म मरण लगा हुआ है। और जब भेदविज्ञान हो कि मन, वचन, काय ये अलग चीज हैं, मैं इनसे निराला केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ। जब ऐसा भेदविज्ञान करते हैं तब उसका जन्म मरण दूर होता है, संसार दूर होता है। क्या करना है धर्मपालन के लिए? अपने आपके निकट अपने को देखोजो जरा, क्या मैं मन, वचन, काय रूप हूँ मैं तो मन, वचन, काय―इन तीनों से परे एक विशुद्ध आत्मतत्त्व हूँ। उस ज्ञानानंदस्वरूप निज आत्मा का अनुभव करें जो शरीर से भी निराला है, वचनों से भी जुदा है, मन से भी परे है, ऐसे विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप निज अंतस्तत्त्व का अनुभव करें।