वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1566
From जैनकोष
जीर्णे रक्ते घने ध्वस्ते नात्मा जीर्णादिक: पटे।
एवं वपुषि जीर्णादौ नात्मा जीर्णादिकस्तथा।।1566।।
इस तरह अपने आत्मा को देखो।जैसे वस्त्र पहिनते हैं ना लोग और किसी का वस्त्र फटा हो तो कोई आदमी यह अनुभव नहीं करता कि मैं फटा हूँ। वस्त्र फटा है, मैं तो अनादि से निराला हूँ। हालांकि अज्ञान दशा में शरीर को माना कि यह मैं हूँ और शरीर को ही देख रहे वस्त्र से न्यारा है तो मैं वस्त्र से न्यारा हूँ इस प्रकार समझते हैं। यह एक दृष्टांत दिया जा रहा है। इसी तरह समझलो कि शरीर अगर जीर्ण शीर्ण हो गया,, वृद्ध हो गया तो उसे निरखकर ज्ञानी जीव यह अनुभव नहीं करता कि मैं जीर्ण शीर्ण वृद्ध हो गया हूँ। इसी प्रकार कोई मोटा कपड़ा पहिने हो तो यह अनुभव नहीं करता कि मैं मोटा हो गया हूँ, ऐसे ही इस मोटे शरीर को देखकर ज्ञानी पुरुष यह अनुभव नहीं करता कि मैं मोटा हूँ। इसी प्रकार यदि वस्त्र बिल्कुल नष्ट हो गया हो, जड़ हो गया हो, खाक हो गया हो तो वह यह अनुभव नहीं करता कि मैं खाक हो गया हूँ। जैसे कपड़े वाले लोग अपने को कपड़े से भिन्न ही देखते हैं इसी प्रकार शरीरधारी भी ज्ञानी अपने को शरीर से न्यारा ही देखता है। और ऐसा अपने आपको देह से निराला समझ सकने वाला ही ज्ञानी योगी साधन कर सकता है, जिसको शरीर से निराले अपने स्वरूप का भान ही नहीं है वह धर्मपालन का अधिकारी नहीं। मूल में अधर्म है यह कि शरीर को माना कि यह मैं हूँ। एक बहुत बड़ा भारी पाप है मिथ्यात्व मोह अज्ञान। इससे बढ़कर और क्या, पूजा, यात्रा, स्वाध्याय, सामायिक, तपश्चरण, उपवास, ये सब काम मोक्ष मार्ग को सिद्ध नहीं कर पाते, क्योंकि जिसे मुक्त होना है उसका ही पता नहीं है कि मैं क्या हूँ। अपने आपकी पहिचान करना बहुत जरूरी बात है, और यों समझ लीजिए इस श्लोक के अनुसार कि तैसे फटे वस्त्र सेआत्मा न्यारा है ऐसे ही जीर्ण शरीर से भी आत्मा न्यारा है। जैसे मोटा वस्त्र शरीर से न्यारा है इसी प्रकार मोटे शरीर से भी यह जीव अलग है। देह से भिन्न केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र अपने आपको देखो तो मैं केवल ज्ञानमात्र हूँ। जानने वाला भी ज्ञान है।जीव को निर्वाण परिणामों से ही मिलता है।इसलिए जब दुनिया भर के इतने काम बड़े-बड़े श्रम करके किए जा रहे हैं तो यह एक भी काम कर लें कि अपने को यह अनुभव कर लें कि मैं आत्मा ज्ञानानंदस्वरूपी देह से निराला हूँ। देह मैं नहीं हूँ, नाम मैं नहीं हूँ। लोग नाम देह का रखते हैं। जब शरीर ही नहीं तो नाम किसका? देहरहित नामरहित विशुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपका अनुभव कीजिए। अपना शरणभूत कारण समयसार परमात्मस्वरूप दर्शन देगा जिसके दर्शन से कृतकृत्य हो जायगा यह जीव। संसार की किसी वस्तु की फिर वांछा न रहेगी। ऐसे अपने आपमें अपने आपके उस कारणपरमात्मस्वरूप को देखिये और देह से प्रीति न रखिये। देह से प्रीति करने में कुछ नहीं रखा है। अपना शरण तो अपने आपमें ही मिलेगा।