वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1591
From जैनकोष
अयत्नजनितं मन्ये ज्ञानिनां परमं पदम्।
यदात्मन्यात्मविज्ञानमात्रमेव समीहते।।1591।।
यदि कोई आत्मा आत्मा में ही विज्ञानमात्र स्थिति को चाहता है, मेरा आत्मा ज्ञानमात्र रहे, मेरा उपयोग केवल जाननमात्र रहे, ज्ञाताद्रष्टा की मेरी स्थिति रहे। ऐसा यदि कोई चाहता है तो समझना चाहिए कि उस ज्ञानी के वह परमपद बिना किसी क्लेश के, बिना किसी परिश्रम के प्राप्त हो ही गया। ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं कि हम तो यही समझते हैं, क्योंकि अंत में होना क्याहै? कोई पुरुष यदि धर्म के मार्ग में चलता है तो चल रहा है। चल-चलकर समृद्धि प्राप्त करके, आत्मा में मग्न होकर आखिर उसे मिलेगा क्या? मिलेगा यह कि वह आत्मा अपने को केवल ज्ञानमात्र अनुभव करता रहे। तो इस तत्त्व को जो चाहता है भीतर से रुचि पूर्वक उसकी ही धुनि बनाता है तो समझिये कि उसको परमपद प्राप्त हो गया। प्रत्येक व्यक्ति के चित्त में कोई न कोई आखिरी अभिलाषा रहती है कि मैं यह बनना चाहता हूँ। कोई कहेगा कि में ऐसा व्यापार बढ़ाना चाहता हूँ। कोई कहेगा कि मैं ऐसा वैभववान बनना चाहता हूँ। यों कोई कुछ बतायेगा कोई कुछ। ज्ञानी पुरुष की यह अभिलाषा रहती है कि मैं केवल ज्ञाता द्रष्टा बना रहूँ। इसके सिवाय मैं अन्य कुछ नहीं चाहता। यदि किसी का इस प्रकार का उत्तर मिले तो समझ लो कि उसकोवह पद प्राप्त हो ही गया, इसमें कुछ संदेह नहीं रहा। ऐसा चाहने वाला अपनी उस चाह के अनुकूल प्रयत्न करेगा। मूर्छाहो जायगी पर उसकी उपेक्षा करेगा। अपने आपमें अपना ज्ञानरूप अवलोकन करने की धुन बनायेगा और ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति बनायेगा, वह मुक्त भी हो जायगा। इससे यह शिक्षा लेना है कि अपनी ऐसी इच्छा बना लें कि मुझे तो आखिर निर्विकल्प ज्ञाता द्रष्टा होना है और कुछ न चाहिए। वैभवशील नहीं होनाहै। यह तो सब मायारूप हे इससे मेरी कोई सिद्धि नहीं है। लोगों में मुझे अपनी महत्ता नहीं बताना है, मैं तो अपने आपमें यही चाहता हूँकि मुझमें किसी पर का उपयोग न रहे। में केवल ज्ञानमात्र, जाननदेखनहार रहूँ। मेरे में कोई रागद्वेष न रहें, ऐसी कोई अपनी इच्छा बनाये तो समझिये कि वह धर्मपालन कर रहा है।