वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1592
From जैनकोष
स्वप्ने दृष्टविनाशोपि यथात्मा न विनश्यति।
जागरेऽपि तथा भ्रांतेरुभयात्रविशेषत:।।1592।।
यह आत्मा अमूर्त है, अविनाशी है, इसका कभी अभाव न होगा। सों यों समझिये कि कदाचित भ्रांति से कोई अपने मरा हुआ भी मान ले (जैसे कि स्वप्न में भी कभी-कभी अपन को मरा हुआ देख लिया जाता है किसी सिंह द्वारा मारा गया, या किसी तालाब में डूब गया, या किसी मगर द्वारा खाया गया) तो उससे कहीं उसका आत्मा नहीं नष्ट हो गया। वह तो जग जाने पर अपने को जिंदा पाता है। तो इसी तरह से समझ लो जगते हुए भी विनाश नहीं होता। दोनों जगह विनाश का केवल भ्रम है। तो जैसे कोई घर के लोग या इष्ट जन सोचे कि में मर रहा हूँ, तो यह उन घर के लोगों का या उन इष्टजनों का कोरा भ्रम है कि यह मर रहा है और मरने वाला का भी कोरा भ्रम है कि मैं मर रहा हूँ अरे उस आत्मा का तो कभी मरण होता ही नहीं। जो सद्भूत वस्तु है उसका कभी विनाश ही नहीं होता। जैसे पुद्गल में एक-एक परमाणु सत् हैं, उनकी केसी ही स्थिति हो जाये, पर परमाणु कभी नष्ट न होंगे। बहुत से परमाणु मिलकर जला दिये जायें तो चाहें वे परमाणु जलकर राख रूप में हो जायें, हवा में उड भी जायें पर वे परमाणु नष्ट नहीं होते। जितने परमाणु थे उतने के उतने ही परमाणु बने रहते हैं। नवीन परमाणु उत्पन्न नहीं होते और पुराने परमाणु विनष्ट नहीं होते हैं, ऐसे ही जितने आत्मा हैं, वे सब अनंत आत्मा कभी नष्ट नहीं होते। और जो कुछ भी नहीं है वह कोई चीज बन जाय तो ऐसा नहीं हुआ करता। जो है वह सदा रहेगा। अपने आपको कोई मरा हुआ भी समझ ले तो वह उसका कोरा भ्रम है। इष्टजन केवल अपने स्वार्थ को तकते हैं। न तो किसी परिजन की अथवा इष्टजन की उस शरीर से प्रीति हैं और न आत्मा से। यथार्थ दृष्टि से सोचो तो यह बात बिल्कुल तथ्य की कही जा रही है। शरीर से तो वे कोई प्रीति करते नहीं, क्योंकि शरीर से यदि प्रीति करते होते तो मरने के बाद उस शरीर को अपने घर से बाहर न जाने देते। पर मर जाने पर फिर सभी को जल्दी पड़ती है कि इसे यहाँ से जल्दी ले जावो। तो शरीर से कोई प्रीति नहीं करते। और इस आत्मा से कोई प्रीति कर ही नहीं सकता। यदि किसी ने इस आत्मा से प्रीति कर ली तो वह भी जैसा वह अमूर्त ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा है वैसा ही वह भी रह गया। तो कोई पुरुष न इस शरीर से प्रीति करता हे और न इस आत्मा से प्रीति करता है। स्वयं में कषाय की वेदना जगती है तो उस वेदनाको शांत करने के लिए, उस पीड़ा से दूर होने के लिए जो कुछ कल्पना में बात बनती है वह रागभरी चेष्टा करता है, स्नेह बढ़ाता है। लेकिन इस रागभरी चेष्टा से, स्नेह के देखने से शांति नहीं हो पाती। रागद्वेष करके यह जीव चैन मानता है। वास्तव में कोई किसी से प्रीति नहीं रखता। आत्मा मरता है नहीं, यह जीव इस शरीर को छोडकर अन्य शरीर को ग्रहण कर लेता है, मरता नहीं है, क्योंकि आत्मा एक अविनाशी तत्त्व है। तो जैसे स्वप्न में अपना मरण दिखे तो वह कोरा भ्रम है, ऐसे ही यही निर्णय रखिये कि हर समय हम आपके शरीर का वियोग हो रहा है, आत्मा तो अमर है।