वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1605
From जैनकोष
अनंतगुणपर्यायसंयुतं तत् त्रयात्मकम्।
त्रिकालविषयं साक्षज्जिनाज्ञासिद्धमामनेत्।।1605।।
मोक्ष के कारणभूत दो प्रकार के ध्यान हैं―धर्मध्यान और शुक्लध्यान। उनमें से धर्मध्यान के चार भेदों का वर्णन चल रहा है। प्रथम धर्मध्यान का नाम है आज्ञाविचय धर्मध्यान। भगवान की आज्ञा को मुख्य करके जो ध्यान बनाया जाता है उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं। इस ध्यान में तत्त्वों का भी विचार है, पर विचार करके भी भगवान की आज्ञा की प्रधानता उसके रहती है। तत्त्व अनंत गुण पर्याय युक्त है।पदार्थजितने भी है सब अनंतगुणात्मक हैं अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में अनंत शक्तियाँ हैं, हैं सर्व अभेद स्वभावरूप, पर जब भेद करके जाना जाता तो अनेक हैं। जैसे एक आत्मा, उसका स्वभाव हे एक चैतन्य, अथवा जो है सो है। अब उस आत्मा के स्वभाव को जब हम भिन्न-भिन्न कार्यों के रूप में देखते हैं तो हमें उसमें अनंत गुण नजर आते हैं। जैसे आत्मा जानता है तो एक ज्ञानगुण है। आत्मा सामान्य प्रतिभास करता हे तो एक दर्शन गुण है, आत्मा आनंद भी भोगता है तो एक आनंद गुण है, इस प्रकार जितने भी काम समझ में आयें उतने इसमें गुण होते हैं। आत्मा सूक्ष्म रहता है तो सूक्ष्म गुण भी है, इस तरह अनंत गुणों से युक्त आत्मा है। ऐसे ही पुद्गल में वास्तविक पुद्गल अणु है―उसमें रूप है तो रूप गुण हो गया, रस है तो रस गुण हो गया, यों जितनी शक्तियाँहैं वे सब गुण हो गये। तो यों पदार्थ अनंत गुण करके सहित हैं, और जितने गुण हे उतनी ही उसकी पर्यायें हैं। कोई भी गुण पर्याय सहित नहीं हो सकता। गुण है तो कोई न कोई अवस्था है। जैसे कि ज्ञानशक्ति है तो वह ज्ञान किसी न किसी अवस्था को लिए हुए होगा। मतिज्ञान हो, श्रुतज्ञान हो, कोई भी हो अवस्था उसकी जरूर होगी। इस प्रकार जितने भी गुण हैं उतनी ही उसमें पर्यायें हैं। अनंत गुण हो तो अनंत पर्यायें हुई। उसका पिंडरूप जो तत्त्व है उसे द्रव्य कहते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में बताया है कि जो गुण पर्याय वाला हो सो द्रव्य है। द्रव्य में यह खासियत है ही। इस काल द्रव्य भी ले लो। लोकाकाश के एक प्रदेश पर ठहरा है, उसे असंख्यात कालहैं। तो कालद्रव्य भी अपने अनंत गुणों से युक्त है और अनंत पर्यायों से युक्त है। । प्रत्येक पदार्थ अनंतगुणपर्याय युक्त है, इसलिए उसे यथात्मक बोलते हैं। कोई पदार्थ ऐसा नहीं कि जो बनता तो हो और बिगड़ता न हो या बना न रहता हो।बिगड़ता तो हो, पर न बनता हो ऐसा कोई नहीं है। कोई पदार्थ बना तो रहता हो पर न बनता हो, न बिगड़ता हो ऐसा भी कोई पदार्थ नहीं है। तो पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है। कुछ एकांती लोग एक निर्विकार को ब्रह्म मानते हैं। तो जिसमें कोई अवस्था नहीं होती हे ऐसा ब्रह्म क्या स्वरूप रखता होगा? वह कथन मात्र है अथवा यों समझिये जैसे द्रव्यदृष्टि में जैन सिद्धांत में पर्याय को निरखकर केवल स्वभाव देखकर आत्मा चैतन्यप्रकाशमात्र कहा है, ऐसा ही उनका एक ब्रह्मा हे, पर यह द्रव्यदृष्टि एकांत हो जाय तो उनका ब्रह्म है। अपने यहाँ एकांत तो है नहीं। द्रव्यदृष्टि से आत्मा एक चैतन्यस्वभावमात्र है। द्रव्यदृष्टि में विकार नहीं है, द्रव्यदृष्टि में अवस्था नहीं है, द्रव्यदृष्टि में परिणमन नहीं है। जैसे दो भींट हैं, हम आगे की भींट देख रहे हैं तो पीछे की भींट हमारी नजर में नहीं है, तो हमारी नजर में नहीं है तो इसके मायने यह नहीं कि भींट है ही नहीं। द्रव्यदृष्टि में पर्याय नजर नहीं आती पर इसके मायने यह नहीं है कि पर्याय हे ही नहीं। पर्यायदृष्टि में गुण नहीं नजर आते तो इसके मायने यह नहीं है कि वह सनातन तत्त्व नहीं है। हाँ द्रव्यदृष्टि का विषय है कि पदार्थ के स्वभाव को जाने। दोनों को स्याद्वाद से लें तो गुण और पर्याय दोनों को जानें सो प्रमाण है। यों उत्पादव्ययधौव्यात्मक है और तीन काल में रहता है। पदार्थ पहिले भी था, आज भी है, आगे भी रहेगा। जो कुछ है नहीं, असत् है वह कभी सत् नहीं बन सकता। जो सत् है, अपना अस्तित्त्व रखता हे वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। तो सत् कभी नष्ट होता नहीं, असत् बनता नहीं तो ये जो सब कुछ बनते दिखते हैं ये सब परिणमन हैं। इससे सिद्ध है कि पदार्थ सनातन है और प्रति समय परिणमता रहता है। ऐसा सब कुछ तत्त्व को जानता हुआ भी यह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष बीच-बीच में अपनी आज्ञाविचयता की पुट लगाता जाता है कि ऐसा जिनेंद्रदेव ने कहा है। जिनेंद्रदेव की ऐसी आज्ञा है कि पदार्थ द्रव्यगुणपर्यायात्मक है, पदाथ्र उत्पाद व्ययध्रौव्यात्मक है, त्रिकालवर्ती है, इसलिए यह सब चिंतन आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है।