वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1606
From जैनकोष
सूक्ष्मं जिनेंद्रवचनं हेतुभिर्यन्न हन्यते।
आज्ञासिद्धं च तद् ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिना:।।1606।।
आज्ञाविचय धर्मध्यानी ज्ञानी सम्यग्दृष्टि के चिंतन में यह तत्त्व समाया हे कि जिनेंद्र भगवानका वचन सूक्ष्म है जो हेतुवों के द्वारा खंडित नहीं होता। अब आप देखें कि केसी-केसी कर्म रचनाएँ बतायी हैं कि जीव किसी समय तीव्र अज्ञानमय मोह विभाव परिणाम करता हे तो 70 कोड़ाकोड़ी तक की स्थिति का कर्मबंधन हो सकता है। एक समय में जितनी स्थिति बंधी है मानो स्थिति सागरों पर्यंत होती हे तो इसके प्रत्येक समय में इस समय इतने परमाणु उदय में आयेंगे, इस समय में इतने उदय में आयेंगे, यह बंटवारा भी हो जाता है। तो बंध के समय में वे स्थितियाँपड़ गयी, निषेक बंध गए हैं। यह बंध के समय का काम हुआ। यह सुनकर घबड़ायें नहीं, कहो भावी काल में इसके परिणाम विशुद्ध हुए तो स्थिति तो उनमें पड़ी ही थी पर उनका अपकर्षण संक्रमण और आगे के निषेकों का पहिले की स्थिति में रह जाना और वहाँ के निषेकों का खिर जाना―यह बातें संभवहैं इसलिए उनकी निर्जराहो जाती है। कोई खोटे परिणाम से बड़ी लंबी स्थिति बाँध ले तो ऐसी स्थिति भोगनी पड़ेगी ऐसा नहीं है। कभी शुद्ध परिणाम हो तो वह स्थिति खिर जायगी, भीतर में मिल जायगी। जिसे एक नक्शे से यों समझिये कि एक फिट भर समय की रचना बनायी तो पहिली लाइन पर जीव स्थित है, उसने कर्म बांधे तो वे पुद्गल स्कंध एक फिट तक की समस्त लाइनों में बँट गए, ये समय हुए। अब करणानुयोग की दृष्टि से यह वर्णन चलेगा। तो आगे चलकर किसी भी समय जीव अगर परिणाम उज्ज्वल बनाता है, अध:करण अपूर्वकरण आदिक परिणाम बनता है तो उन परिणामों के काल में ये कर्मबंधन ध्वस्त हो जाते हैं। यहाँ पर एक शंका हो सकती हे कि जब जीव ने कर्म बांधा और उनका उदयकाल आयगा तो उस समय भी कर्म बंधेगे, फिर खोटे परिणाम होंगे ता फिर कर्मबँधेंगे। यों छूटना किस तरह होगा? तो सुनिये यह सूक्ष्म कथन है। जिस समय में बंधे हुए कर्म उदय में आते हैं उस समय तो टाला नहीं जा सकता। उस समय उसके अनुकूल परिणाम बनेंगे, पर उदयावली में कर्म आ जायें अथवा इससे भी पहिले उन्हें तो टाला जा सकता है, हाँ उदयक्षण में कर्म आयें तो उन्हें नहीं टाला जा सकता। बहुत पहिले विशुद्ध परिणाम कोई करे तो बहुत आगे के कर्म घट जायें, स्थिति दूर हो जाय, प्रकृतियाँ कम हो जायें, अनुभाग कम हो जाय, यह तो बहुत संभव है, पर समय पर विशुद्ध परिणाम हो और कर्म काट दिए जायें यह बात केवल उदयावली तक संभव हैपर उदय के क्षण में संभव नहीं है। उदय के होने की एक परंपरा होती है और निरंतर उस-उस जाति की पर्यायों का उदय चलकर उपयोग में आये ऐसा बनने के लिए एक आवली तक में परंपरा चलती है, उसे कहते हैं उदयावली। उस उदयावली के मान लो एक हजार समय है, उस एक हजार समय में भिन्न-भिन्न समय में जुदी-जुदी कर्मवर्गणायें खिरेंगी और दृष्टांत में मानो 1000 समय तक उस-उस जाति के कर्मों का निरंतर उदय चलता है इसलिए उसे उदयावली कहते हैं, पर उन एक हजार समयों के भीतर उसे मान लो 500 न. के समय पर जो प्रकृति उदय में आये, कामार्णवर्गणायें उदय में आयी हैं वह हे उदयक्षण और उसके सिलसिले में आना तो था 500 समय और उदय में, पर 500 समय में भी पहिले वह उदयावली आ गयी तो उदयावली में आये हुए कर्म भी संक्रमण को प्राप्त हो सकते हैं उसे कहते हैं स्तिबुक संक्रमण, अर्थात् उनमें जो उदय का क्षण है उससे एक समय पहिले वह प्रकृति बदले, याने जो उदयक्षण में प्रकृति चल रही है उस रूप परिणाम जाय और उदय में आये, उसे कहते हैं स्तिबुक संक्रमण। यों स्तिबुक संक्रमण से भी कर्म झड़ जाते हैं और स्तिबुक संक्रमण न होकर सीधा अपकर्षण और निर्जरण है, उस प्रकार भी कर्म झड़ जाते हैं। स्तिबुक संक्रमण से जो कर्म खिरते हैं उसका महत्त्व भी है और नहीं भी है दोनों बातें हैं। जैसे इस समय मनुष्यों के चारों गतियों के भी उदय चल सकते हैं पर फल में, केवल मनुष्यगति है, जंमजंमांतरों में तिर्यंच गति भी बाँधी होगी, अन्य गति बाँधी होगी तो नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव सभी गतियों का उदय आ सकता है, पर होगा क्या कि जिस क्षण वह उदय आने को होगा नरक आदिक गति, जो उदयक्षण से एक समय पहिले मनुष्यगति के रूप में बनकर उदय में आयगा, इसका नाम स्तिबुक संक्रमण है। अब इसमें कोई महत्त्व नहीं रहा। जीवों में प्रकृत्या यह धारा बनती है कि अनेक कर्मों का उदय आ रहा है, पर भोगने में भव के अनुकूल ही होगा तो उस समय बन-बनकर, परिणम करके खिरेगा।
प्रकरण यह चल रहा है कि जिनेंद्र का वचन अति सूक्ष्म है, इंद्रिय के अगोचर है। तो जिनेंद्र का वचन जब हम इतना सूक्ष्म देखते हैं और एक आचार्य के वचन का दूसरे आचार्य के वचन में विरोध नहीं पाते हैं, एक परंपरा चल रही है तो इससे सर्वज्ञता की सिद्धि अवश्य होती है। तो आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष यह चिंतन कर रहा है कि जिनेंद्र का वचन इतना सूक्ष्म हे जो इंद्रिय से स्पष्ट नहीं हो सकता है। ज्ञानी पुरुष चिंतन से, युक्ति से, अनुभव से भी जानकर आप्त भगवान की भक्ति इतनी तीव्र हे कि सब तरह से निर्णीत तत्त्व को जानकर भी भगवान जिनेंद्रदेव ने ऐसा कहा है ऐसा प्रमाण रूप में अपने आपमें जाहिर कर रहा है, यह आज्ञाविचय धर्मध्यान है। जिनेंद्र भगवान के वचनों में जो सूक्ष्म कथन बताया गया है, जिसमें कर्मों की अपकर्षण स्थिति भागहार आदि बताये हैं उसमें कुछ युक्ति प्रयोग भी है। कर्मों का उत्कर्षण होने के लिए संक्लेश परिणाम चाहिए, विशुद्ध परिणाम न चाहिए, शुभायु को छोड़कर अन्य की स्थिति बढने के लिए विशुद्ध परिणाम न चाहिए, किंतु आत्मा के गिरे हुए परिणाम चाहिए। तो जो आत्मा के गिरे हुए परिणाम हों उस काल में उस परिणाम के अनुकूल कर्मों की स्थिति बढ़ जाती है। जैसे आयु कर्म की स्थिति अपकर्ष काल में ही घटती बढ़ती है। आयुकर्म का बंध कर्मभूमि के मनुष्य में तो संपूर्ण आयु के तीन भाग कीजिए। दो भाग व्यतीत होने के पश्चात् तृतीय भाग में आयु बंध होता है। उस दूसरे भाग में भी आयु का बंध न हो तो उसके भी तीन भाग करें। इस तरह 8 बार अपकर्ष काल आता है। किसी को आयुकर्म का बंध पहिले आकर्षण में मिला हो तो जब उसका द्वितीय तृतीय अपकर्ष काल आ जाय तो संभव है कि उस समय आयु कर्म की स्थिति घट भी जाय और बढ़ भी जाय, सो यह आयुकर्म की स्थिति का घटना बढ़ना बध्यमान में है, भुज्जमान में नहीं है। आयुकर्म की स्थिति तो अपकर्ष काल में ही परिवर्तित होती है और अन्य कर्म का संक्लेश आदि परिणाम होने पर परिणामों के अनुकूल जो कर्म बंध सकते हैं केवल उन की कर्मों की स्थिति घट बढ़ सकती है। ऐसा नहीं हो सकता है कि साता वेदनीय बंध रहा हो और असाता की स्थिति बढ़ जाय, साता वेदनीय के काल में पूर्व बद्ध सातावेदनीय की स्थिति बढ़ सकती है। देखिये जैनशासन में आप्त देव ने कैसी-कैसी एक-एक समय की बात बतायी, कैसा-कैसा उत्कर्षण होता, कैसा अपकर्षण होता, केसी स्थापना होती, आगे के कर्म कैसे पहिले निषेक में आ सकते, यह समस्त कथन अत्यंत सूक्ष्म है और जो हेतुवों के द्वारा खंडित नहीं हो सकती तो आज्ञाविचय धर्मध्यानी पुरुष विचार कर रहा है कि यह सब कथन जिनेंद्रदेव की आज्ञा है, जो कि पूर्ण सत्य है इसमें कोई संदेह नहीं है।