वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1637
From जैनकोष
तर्थवैतेऽनुभूयंते पदार्था: सूत्रसूचिता:।
अतो मार्गेऽत्र लग्नोऽहं प्राप्त एव शिवास्पदम्।।1637।।
यह ज्ञानी पुरुष फिर ऐसा विचार करता है कि चारित्र सूत्र में जो पदार्थ कहे गए हैं वे वैसे ही अनुभव किए जाते हैं और जैसा कहा है वैसा ही किया है। जिनेंद्रदेव ने जैसा उपकार किया है, पदार्थ का जो-जो स्वरूप बताया है, जिस प्रकार बताया हे अनुभव करने पर युक्ति से नीयत करने पर वह सब वैसा का ही वैसा रहता है। जिनेंद्रदेव ने वस्तु का जो स्वरूप बताया है वह सत्य सिद्ध होता है। और जब मैं जिनेंद्रदेव के बताये हुए मार्ग में लगा हूँ तो मैंने मोक्ष प्राप्त कर ही लिया ऐसा मैं मानता हूँ। जो सच्चे दिल से बाह्यपदार्थों से अपना हित न मानकर, बाह्यवस्तुवों से रागद्वेष का संबंध न बनाकर अपने आपके स्वरूप में जो रमना चाहता है उस पुरुष ने वह मार्ग प्राप्त किया और अनुभव करता है कि मोक्ष अब कितनी दूर है, मोक्ष पा ही लिया है। जैसे कोई किसी नगर को जा रहा हो और चलते-चलते जब बिल्कुल निकट पहुँच जाता है तो यह अनुभव करता हे कि अब तो मैंने उस नगर को पा ही लिया, ऐसे ही मोक्षमार्ग का रुचिया ज्ञानी पुरुष जिनेंद्रदेव के बताये हुए मार्ग में लगा हुआ निरखता है तो यह भाव करता है कि अब तो मेरा मोक्ष हो ही चुका।