वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1638
From जैनकोष
इत्युपायो विनिश्चेयो मार्गाच्यवनलक्षण:।
कर्मणां च तथापाय उपायश्चात्मसिद्धये।।1638।।
इस प्रकार पूर्वोक्त मार्ग से न उत्पन्न, ऐसा जो उपाय है उसी का ही निश्चय करनाहै, वैसा ही कर्मों का विनाश निश्चय करना है। इस प्रकार अपायविचय और उपायविचय दोनों का चिंतन यह ज्ञानी पुरुष कर रहा है। जहाँविनाश का चिंतन है, रागादिकभाव विनष्ट होते हैं तो आत्मा का शुद्ध स्वरूप विकसित होता है। अपना चैतन्यस्वरूप जानने का उपाय बनाना और उस उपाय की सुधि बनाना यह भी धर्मध्यान है और रागादिकभावों के विनाश की स्थिति सोचना और उस प्रकार विनाश में अपना प्रवर्तन करना सो भी अपायविचय धर्मध्यानहै। अपाय और उपाय दोनों एक साथ लगे हैं। तो ये सब बाह्यसाधन समागम बनाना सो उपाय है और दोषों की खबर का चिंतन करना ऐसा उपाय, ये आत्मसाधन के लिए दोनों बातें करनी पड़ती है। इन रागादिक बैरियों का विनाश कब हो सकता है जब कि अपने आत्मा में विराजमान तत्त्व का अवलोकन किया जाय। जो ध्यान गुणों को ग्रहण करे वह अपायविचय नामक धर्मध्यान है। किसी चीज के विचारने पर किसी तत्त्व का अपाय भी होता है। उपाय और अपाय ये जीव में सर्वथा से लगे हैं, उपेय और उपाय लगा है तो उसका नाम है उपेय और अपाय लगा है तो उसका नाम है उपाय। रागादिक दूर हों, ज्ञानप्रकाश बने तो उसमें आत्मा की सिद्धि ही है। और जैसे-जैसे उपाय बनता है वैसे ही वैसे अपाय बनता है और जैसे अपाय बनता वैसा उपेय भी बनता। इस उपेय में कोई आशंका करे कि पहिले उपाय बन जायगा कि अपाय, याने ज्ञान का विकास होता उसे निश्चय समझिये और रागादिक भावों का दूर होना इसे अनिश्चय समझिये। तो गुणविकास पहिले होगा? फिर रागादिक भावों का अभाव होगा। रागादिक का अभाव होगा तो आत्मा का लाभ होगा। विचार करने पर दोनों बातें सही हैं और उसमें ऐसी छटनी मानकर मत रहो कि प्रथम उपेय होगा, पीछे अपाय बन सकेगा, थोड़ा-थोड़ा दोनों एक साथ होते हैं। फिर उसमें किसी की दृष्टि मुख्य हो जाय यह बात अलग है। तो आत्मलाभ के लिए ज्ञानी पुरुष उपाय का विचार कर रहा है।