वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1644
From जैनकोष
प्रसासिक्षुरयंत्रपंनगगरव्यालानसोग्रग्रहां,शीर्णांगन्कृमिकीटकंटकरज:क्षारास्थिपंकोपलान्।
काराशृंखलशंकुकांडनिगडक्रूरारिवैरास्तथा,द्रव्याण्याप्य भजंति दु:खमखिलं जीवा भवाध्वस्थिता।।1644।।
संसार मार्ग में रहते हुए जीव इन-इन वस्तुवों का निमित्त पाकर, आश्रय पाकर सुख भोगता है। जैसे तलवार, बंदूक, छुरी आदि। इन-इन शास्त्रों की सहायता से यह जीव अपने को सुखी अनुभव करता है। किसी से ही बात हो रही और बात बढ़ गई तो गोली मार दी, छुरी भोंक दी अथवा कोई भी शस्त्र मार दिया। कुछ मिलता-जुलता नहीं, पर व्यर्थ में लोग दूसरों का घात कर डालते हैं। सर्पादिक विषधर जीव डस लें और मरण हो जाय तो पाप का उदय आता है तब तो ऐसा निमित्त मिलता है। विषयों से व्यग्र हो जाना, सर्पों के डसने से बड़ा बेचैन हो जाना, ये सब पाप के फल हैं।कोई दुष्ट सिंहादिक जानवर द्वारा प्राणघात हो जाय तो यह भी पाप का फल है। अग्नि में जल जाय, वन में आग लग जाने से अथवा किसी तरह आग लग जाने से किसी का प्राणांत हो जाय तो ये सब पाप के फल हैं। दुर्गंधित शरीर हो जाय, शरीर के अंग गल जायें, कोढ़ हो जाय, चलते न बने तो ये सब पाप के फल हैं। ट्टटी पीप आदिक से शरीर दुर्वासित हो जाय तो यह भी पाप का फल है। ज्ञानी जीव पुण्य और पाप के फल का विचार कर रहा है। यह पुण्य फल मेरा नहींहै। यह कर्मफल हे तभी तो निमित्त की मुख्यता से वर्णन करने में एक लाभ पुद्गल दृष्टि मिल जाती है। जैसे रागादिक भाव पौद्गलिक हैं, पुद्गल के निमित्त से होते हैं इसलिए पुद्गल से इनका संबंध है। आत्मा से संबंध न समझें, आत्मा को निर्लेप देखें, आत्मा के स्वभाव की दृष्टि की तो क्या निमित्त की बात मान लेने में कोई बिगाड़ है? बिगाड़तो आशय खोटा है इससे है। यह औषधि है एक। ऐसे आशय से आत्मा को एक स्वभावदृष्टि मिलती है। कोई बेड़ी पड़ जाय, कीला गड़ जाय, ये सब पाप के फल हैं। कोई क्रूर दुष्ट बैरी मिल जाय, अपने को सताने लगे, घात करे तो ऐसा द्रव्यप्राण खोकर यह आत्मा दु:ख भोगता है। शुभ कर्मों का भी फल संसार में भटकना है, अशुभ कर्मों का भी फल संसार में भटकना है। ये फल मेरे आत्मा के स्वरूप नहीं हैं। मेरा आत्मा केवल चैतन्यमात्र है―इस प्रकार आत्मा के विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप की दृष्टि रखे और इस कर्मफल का फिर विचार करे। कर्मफल का विचार करते हुए में लक्ष्य यह रखना चाहिए कि ये सब कर्मफल हैं। यह विचार करता है कि ये कर्मरूपी विषवृक्ष के फल हैं, मेरे भोगे बिना वे गल जायें। भोग क्या कि ये कर्मफल आ रहे हैं। रागादिक विभाव नाना परिस्थितियाँ, उनको उपयोग ग्रहण करे घबड़ायें या सुखी हो। उसमें मौज माना, अपनाया तो यह भार बन गया। वैसा उपयोग यदि इस कर्मफल का ग्रहण न करे तो ग्रहण न करने की स्थिति में जैसा यह अबुद्धिपूर्वक हो जायगा, होकर बन जायगा, किंतु बुद्धिपूर्वक इस फल को पकड़ा गया तो विशिष्ट कर्मबंध होगा। तो यह सब कर्मरूप विष वृक्ष फल मेरे भोगे बिना जाय। तो एक जो लक्षण निज अंतस्तत्त्व में मग्न हो रहा था और इसी में मेरा जीवन व्यतीत हो―ज्ञानी जीव यह भावना बनाता है। विपाकविचय धर्मध्यान में विचित्र कर्मफलों का चिंतन करके विपाकविचय धर्मध्यानी पुरुष ऐसा चिंतन करता हे कि मुझे अपने स्वभाव की दृष्टि रहेगी, अपने आत्मस्वभाव की दृष्टि रहेगी तो हम अपने विशुद्ध मार्ग में बढ़ते चले जायेंगे और उस विशुद्ध मार्ग में बढ़कर हम अपार लाभ पायेंगे।