वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1645
From जैनकोष
निसर्गेणातिरौद्राणि भयक्लेशास्पदानि च।
दु:खमेवाप्नुवंत्युच्चै: क्षेत्राण्यासाद्य जंतव:।।1645।।
विपाकविचय धर्मध्यान में ज्ञानी पुरुष कर्मों के नाना फलों का चिंतन कर रहा है। जगत में जितनी विचित्रताएँ हैं वे सब कर्मों के फल हैं। यह प्राणी स्वभाव से ही ऐसे क्षेत्रों को पाकर दु:खी होता है जो क्षेत्र रौद्र भय और क्लेश के ठिकाने हैं याने ऐसे-ऐसे स्थान हैं जो बड़े भयानक हैं, जिनमें नाना तरह के क्लेश हैं, ऐसे क्षेत्रों को पाकर दु:खी होता है। जैसे बर्फीली जगह जहाँ बर्फों में कुछ मनुष्य रहते हैं उनका जीवन क्या? वहाँ न खेती है, न अन्न है, न ढंग से रहने को है, पता नहीं कैसे क्या करते हैं? तो ऐसे-ऐसे रौद्र स्थान हैं जिन स्थानों में जन्म लेकर यह-यह जीव नाना दु:खों को भोगता है। यह कर्मों का फल विचार कर रहा है। जीव तो स्वभाव से एक चैतन्यमात्र है, जहाँ आकुलता रंच मात्र भी नहीं है, लेकिन इस जीव ने अपना यह साधारण स्वरूप खोकर, अपने उपयोग में न लेकर बाहर में दृष्टि लगाये है जिसने इससे अलग-अलग कुछ समझा है, अपने ज्ञान के खंड-खंड कर डालता है और किसी पदार्थ में राग व किसी पदार्थ में द्वेष करता है। इस तरह यह जीव नाना तरह से दु:खी होता है। गलती परिणति की दृष्टि से देखो तो अपनी है। भले ही यह कह लीजिए कि कर्मों का उदय ऐसा ही था ऐसा ही निमित्त था कि ऐसा परिणाम करना पड़ा, मगर परिणाम जैसा करना पड़ा, जिसको परिणमन बनाना पड़ा अपराध तो उसका है। और जितने भी जीव दु:खी होते हैं वे अपने ही अपराध से दु:खी होते हैं, कोई दूसरा किसी को दु:खी कर ही नहीं सकता। वस्तुस्वरूप की बात कही जा रही है। किसी में सामर्थ्य नहीं कि किसी का दु:खरूप अथवा सुखरूप परिणमन बना दे। जीव खुद परिणाम बनाता है, अपराध करता है और दु:खी होता है। तो सबसे पहिला अपराध यह है कि है तो भिन्न चीज और उसे मान लिया अपनी। इतनी बड़ी जो चोरी कर रहा है यह जीव उसका परिणाम यही तो मिल रहा है कि नाना प्रकार की पर्यायों को धारण करता है। नाना प्रकार के दु:खों को यह जीव भोगता रहता है, यह सब पाप का फल है।