वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1647
From जैनकोष
वर्षातपतुषाराढ्य ईत्युत्पातादिसंकुल:।
काल: सदैव सत्वानां दु:खानलनिबंधनम्।।1647।।
जिनके पाप का उदय है उनको ऐसा समय मिलता है कि जो बर्फ के उत्पात वाला है। जहाँ बर्फ की अधिक वर्षा होती रहती हे, जहाँ पर सुख शांति नहीं मिल पाती बल्कि कष्ट ही बढ़ते रहते हैं। तो यह जीवों के पापोदय का कारण है। जहाँ बहुत गर्मी पड़े, सही न जाय, जहाँ शरीर के ढंग बदल जायें, रात-दिन कष्ट आये, बहुत समय तक गरमी चले। ऐसे क्षेत्र अथवा काल इस जीव को पाप के उदय से मिलते हैं, जहाँ तुषा बर्फ पड़ती रहती है। कल्पना करो कि जो क्षेत्र ऐसे हैं कि जहाँ बर्फीले स्थान हैं, कैसे लोग उस बर्फ पर चलते हैं, क्या उनको खाने को मिलता है? क्या उनकी जिंदगी है, उनका तो पशुवों जैसा जीवन है। न कुछ हित की बात सोच सकें और न कोई ढंग से भोगोपभोग का साधन कर सकें, ऐसे खोटे क्षेत्रों में जन्म होना यह पापोदय का कारण है। जहाँ ईति-भीति, अनेक भय ज्यादा रहते हैं, दूसरा शत्रु चढ़ाई कर दे। उत्पात जहाँज्यादा रहे ऐसे स्थान में जन्म लेना यह संसार संतति का कारण है। पापोदय चल रहा है, उससे ऐसे-ऐसे पाप के स्थान बन रहे हैं यह ज्ञानी जीव विचार कर रहा है। इस विचार के साथ ही साथ उसके लक्ष्य में यह बना हुआ है कि जीव का स्वरूप तो शुद्ध चैतन्य है। और फिर कर्मों के फल को विचार रहा है कि ये फल प्राप्त होते हैं जीवों को, ये सब एक उदय से होते हैं और यह उदय की चीज परतत्त्व है। इस पाकर क्रोध, मन, माया, लोभ, तृषा आदिक न करना, एक अपने आपके स्वरूप की ओर जाना चाहिए। विपाकविचय धर्मध्यान में उन विपाकों का चिंतन चल रहा है जो अपने आत्मा में अपने विभाव प्राप्त है। रागद्वेष की प्राप्ति है उन परिणामों को ज्ञानी ऐसा सोच रहा हे कि ये मेरे आत्मा की चीज नहीं हैं। जिसने यों आत्मा से भिन्न समझ लिया उसे फिर उसमें मोह नहीं होता। तो ऐसी निर्मोह दृष्टि न पाकर अज्ञान में भ्रमण कर करके यह जीव ऐसी दु:खरूप अग्नि का संताप सह रहा है। जिसे दूसरा देखे तो यह कह बैठे कि यह बर्दाश्त के काबिल नहीं है। ऐसे नाना फल मिलते हैं जीवों को तो उन्हें जान करके यह शिक्षा लेनी है कि हमें अपने परिणाम विशुद्ध रखना चाहिए, दूसरों का बुरा न विचारें और अपने निजी स्वभाव को निरखें। जिस स्वभाव को निरखने पर, जिस स्वरूप पर मग्न होने पर संसार का कोई क्लेश नहीं रहता उसे देखें। और फिर दूसरी बात यह है कि हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह―ये 5 पाप हैं इनकी प्रवृत्ति निरखें तो यह जीव कर्मों के विपाक से मुकाबला कर सकता है।