वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1715
From जैनकोष
यन्निमेषमपि स्मर्तुं द्रष्टुं श्रोतुं न शक्यते ।
तद्दुःखमत्र सोढव्यं वर्द्धमानं कथं मया ।।1715।।
नरक की दुःखवेदना सहने का विषाद―फिर विचार करता है कि इतना भी तो कुछ दुःख से छुटकारा नहीं कि नेत्र के टिमकार मात्र भी समय कुछ चैन से रह सकूँ । इतने कठिन दुःख के निमेष मात्र भी उनका स्मरण करे, दो वर्णन सुने तो इतना देखने सुनने की भी सामर्थ्य नहीं । प्रतिक्षण बढ़ते हुए यहाँ के दुःख हैं, इन्हें मैं कैसे सहन करूँ? नारकी जीव ऐसा चिंतन करता है । ऐसा ध्यान यह संस्थानविचय धर्मध्यान वाला ज्ञानी सम्यग्दृष्टि कर रहा है । जैसे यहाँ कितने ही दुःख ऐसे हैं कि दूसरों का दुःख देख ले तो जितना दुःख वे दूसरे न मानते हों उससे ज्यादा दुःख यह मान लेता है । यह सोचकर कि ऐसे ही दुःख अब हम पर भी तो आने को हैं । बुखार की याद आती है । थोड़ी हरारत हुई तो मालूम पड़ा कि अब बुखार आ गया है, इतना क्लेश करता है यह मनुष्य कि बुखार: आ जाय तब उतना क्लेश नहीं मानता जितना कि क्लेश पहिले मानता । कितने ही दुःख यहाँ भी ऐसे हैं जिन्हें देखा नहीं जा सकता, याद नहीं किया जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता । नरकों में तो दुःख ही दुःख भरे हैं । पाप के उदय का फल अधिक से अधिक मिल सके ऐसा वह नरक का स्थान है । वहाँ नारकी जीव विचार करता है कि इन दुःखों को मैं कैसे सहूं? यहाँ मनुष्य मोह में कितना मस्त रहते हैं कि उन्हें रंचमात्र भी अपने भविष्य की परलोक की सुधि नहीं है । मेरा क्या होगा, वर्तमान में सुख मिलना चाहिए । तो कल्पना के अनुसार वे वर्तमान में मौज मानते हैं पर वस्तुत: मौज वहाँ भी नहीं है । आनंद तो एक ही है । जहाँ निराकुलता हो वह आत्मीय आनंद है, इंद्रियजंय आनंद में यह तारीफ नहीं है कि निराकुलता रह सके । कदाचित थोड़ा कुछ समय अशांति का उपशम भी हो तो अहो पीछे विकट अशांति उत्पन्न करते हैं । इन्हीं विषयानंदों के फल में और जीवों को सताने के फल में नरकगति में जन्म लेना पड़ता है ।