वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1734-1735
From जैनकोष
असह्यदु:खसंतानदानदक्षा कलिप्रिया:।
तीक्ष्णदंष्ट्रा करालस्या भिन्नांजनसमप्रभा:।।1734।।
कृष्णलेश्योद्धता: पापा रौद्रध्यानैक भाविता:।
भवंति क्षेत्रदोषेण सर्वे ते नारका: खला:।।1735।।
नारकियों की अशुरूपता का चित्रण―पाप के उदय का तीव्र फल मिलने का स्थान या तो निगोद है या नरक है । यहाँ नरक गति का वर्णन चल रहा है कि नरकों में रहने वाले नारकी दूसरे को असह्य दुःख देने में निरंतर चतुर रहा करते हैं । दूसरे नारकियों को निरंतर दुःखी करने में ही वे अपने को संतुष्ट मानते हैं । वहाँ दिन रात तो नहीं हैं पर अपने शब्दों में हम यों कह रहे हैं कि वे नारकी रात दिन चौबीसों घंटे केवल दूसरे नारकियों को कठिन से कठिन वेदनाएँ पहुंचाने में ही अपने को संतुष्ट मानते हैं । जैसे यहाँ भी मनुष्यों में अनेक लोग इस प्रकृति के होते हैं कि दूसरों को दुःखी होता हुआ देखने में बड़ा मौज मानते हैं, ऐसे ही नारकियों में भी ऐसी क्रूरता है कि वे दूसरे नारकी को असह्य दुःख देने में ही अपने को संतुष्ट मानते हैं । नरक में पहुंचना रौद्रध्यान के प्रताप से होता है । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह में आनंद मानना यह रौद्रध्यान है, ऐसे रौद्रध्यान के कारण वे नरक में गए तो वहाँ भी रौद्रध्यान की विशेषता है । नरकों में एकेंद्रिय जीव उत्पन्न नहीं होते, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय और चारइंद्रिय जीव भी नरक में नहीं उत्पन्न होते, पंचेंद्रिय में असंज्ञी जीव पहिले नरक में कदाचित् उत्पन्न हो सकते हैं पर प्राय: संज्ञी पंचेंद्रिय जीव ही नरक में जाते हैं । तो जो असंज्ञी जीव हैं, जो चारइंद्रिय तक के जीव हैं उनमें रौद्रध्यान की विशेषता नहीं है । रौद्रध्यान उनके भी होता है मगर तीव्र रौद्रध्यान कर सकने में समर्थ मन वाले जीव ही हो सकते हैं । उस रौद्रध्यान के कारण नरक में गए । नारकी जीव मरकर तुरंत नरक में नहीं जाते, देवगति के जीव मरकर, व भोगभूमिया मनुष्य नरक में नहीं जाते, केवल कर्मभूमिया मनुष्य और तिर्यंच मरकर नरक गति में जाते हैं । तो रौद्रध्यान की जड़ से जिनकी नरक आयु बँधी और नरक में उत्पन्न हुए तो जीवनभर उनके रोद्रध्यान की प्रमुखता रहती है । वे नारकी कलहप्रिय हैं, वे चाहते ही नहीं कि हम शांति से रहें, और दूसरे भी शांति से रहे । शांति का वहाँ कोई स्थान नहीं है, वे एक दूसरे की कलह ही देखना चाहते हैं । वे नारकी जीव भयानक मुख वाले हैं, उनका सारा शरीर का आकार भी भयानक है । इनके निरंतर क्रूरता ही बसी रहा करती है । यहाँ ही देख लो―जो मनुष्य क्रूर हैं अथवा जिनकी क्रोध करने की प्रकृति है उनका चेहरा भयानक दीखता है और जो शांति प्रिय लोग हैं उनके चेहरे में कोई भयानकता नहीं टपकती । फिर वे नारकी तो हुंडकसंस्थान वाले हैं, वे निरंतर क्रूरता का परिणाम रखते हैं, तो उनका चेहरा अत्यंत भयानक हो जाता है । बिखरे हुए काजल के समान उनके शरीर की काली प्रभा है । उनका परिणाम कृष्णलेश्या, नील लेश्या और कापोतलेश्यामय बना रहता है, इस कारण सदा उद्धत रहा करते हैं । उनके मुख्यता से कृष्ण, नील और कापोत लेश्यायें हैं इस कारण निरंतर उनके रौद्रध्यान की भावना रहा करती है । वह नरक का क्षेत्र ऐसा ही दूषित है कि क्षेत्र के दोष से सारे नारकी दुष्ट होते हैं । ऐसी नरक भूमि में ये मनुष्य तिर्यंच पापों में व्यसनों में आसक्ति रखने से उत्पन्न होते हैं । जीव को स्वदृष्टि न मिले और बाहरी विषयों में ही उसकी हित बुद्धि जाय इस कारण बाह्य पदार्थों में इसका आकर्षण होता है । ऐसी जो' स्थिति है यह स्थिति ही पाप है । परपदार्थों में रुचि होना, परपदार्थों मे दृष्टि लगाना, उसे ही हित मानना, अपने निकट आना ही नहीं, अपनी सुधि हो ही नहीं, परवस्तु के पीछे दौड़ लगाये, ऐसी जो जीव की स्थिति है यह स्थिति स्वयं पाप है और ऐसी स्थिति में पाप कर्म का बंध होता है जिसके फल में नरक जैसे कठिन दुःख भोगने पड़ते हैं ।