वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1739
From जैनकोष
कृमय: पूतिकुंडेषु वज्रसूचीसमानना:।
भित्वा चर्मास्थिमांसानि पिबंत्याकृष्य।।1739।।
विक्रियानिर्मित कीट जोकों द्वारा होने वाले उपद्रवों का चित्रण―उन नारकी जीवों के पीब के कुंडों में बज्र की सुई के समान जिनके मुख हैं ऐसे कीड़े बाजों के नारकी जीवों के चमड़े और हाड़ माँस को विदार कर रक्त की पीती हैं । नारकी जीव कहते उसे हैं जो शांत न रह सकें । नारक शब्द का अर्थ है―जो जीवों को निरंतर पीड़ित करता रहे । हर तरह से दुःख देकर भी वे नारकी जीव कभी भी तृप्त नहीं होते । उनके निरंतर चाह बनी रहती है कि मैं इस तरह से इनको दुःख पहुंचाऊं । जैसे किसी मनुष्य का तलवार से खंड-खंड कर देने पर भी शांति नहीं मिलती इसी प्रकार उन नारकी जीवों को दूसरे जीवों का खंड-खंड कर देने पर भी शांति नहीं मिलती । अनेक प्रकार के और-और भी उपाय कर के उन नारकी जीवों का घात करते रहते हैं । कहीं चक्की में पीस दिया, कहीं कोल्हू में पेल दिया, कहीं कड़ाही में उबाल दिया, कहीं कीड़े व जोंक आदिक बनकर उनके शरीर को बिगाड़ दिया, इस तरह की अनेक विक्रियायें कर के वे नारकी जीव दूसरे नारकी जीवों का घात करते रहते हैं । यहाँ तो थोड़ासा मच्छर भी काटते हैं तो लोगों को वह वेदना असह्य मासूम पड़ती है । मक्खी जो कि काटती भी नहीं है वह भी यदि शरीर में कहीं बार-बार बैठती रहती है तो उसकी भी वेदना लोगों को असह्य मालूम होती है, फिर उन नारकी दुःखों की तो कहानी ही क्या कही जाय? वे नारकी जीव बड़ी भीषण वेदनाएं बहुत काल तक सहते रहते हैं ।