वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1748
From जैनकोष
बिंदु मात्रं न तैर्वारि प्राप्यते पातुमातुरै:।
तिलमात्रोऽपि नाहारो ग्रसितुं लभ्यते हि तै: ।।1748।।
नरकों में तिल बिंदु मात्र भी आहार जल की अलभ्यता―उन नारकों मे भूख प्यास की अत्यंत तीव्र वेदना होती है लेकिन उन नारकियों को न तो खाने के लिए एक दाना मिलता है और न पीने के लिए एक बूंद पानी मिलता है । इस प्रकार वे नारकी जीव भूख प्यास की वेदना से पीड़ित होकर निरंतर भूख प्यास आदिक की वेदनाएँ सहते रहते हैं । इससे सिद्ध है कि उन नारकों में इतने घोर दुःख हैं कि जिन दुःखों को भोगने के बाद यद्यपि अशुभ कर्मों का बंध होता है कि लेकिन इतना तीव्र बंध नहीं हो पाया, उस कठिन दुःख में इतने कर्म झड़े कि वह जीव मरकर फिर तुरंत नारकी नहीं होता । नारकी जीव मरकर या तो कर्मभूमिया मनुष्य बने या कर्मभूमिया तिर्यंच बने, बाद में फिर नरक में चला जाय, यह संभव है । वेदना वहाँ इतनी तीव्र होती है क्षुधा और तृषा की कि वह अत्यंत असह्य है । क्षुधा की वेदना से भी खोटी वेदना तृषा की है । क्षुधा के 2 दर्जे हैं और तृषा के 4 दर्जे हैं । क्षुधा है तीव्र और मंद और तृषा है अत्यंत तीव्र, तीव्र, मंद और अत्यंत मंद । जरासी भूख अगर लग जाये तो वह मालुम भी नहीं पड़ती । तीव्र भूख लग जाय तभी क्षुधा सताती है । प्यास तो थोड़ी भी हो तब भी मालूम हो जाती है । तो यहाँ मनुष्य भव में बिना भूख के ही बहुत-बहुत खाते रहते हैं और अनेक कर्मबंध करते रहते हैं । लोग बड़ी असंयम भरी प्रवृत्तियां कर रहे हैं, पर इसके फल में नरक जैसी दुर्गतियों में जन्म लेना होता है । अभी इस मनुष्यभव में तो कुछ पुण्य का उदय है ना तो जैसी चाहे स्वच्छंद होकर प्रवृत्तियाँ करले परंतु उनका फल अच्छा नहीं है ।