वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1760
From जैनकोष
निशादिनविभागोऽयं न तत्र त्रिदशास्पदे ।
रत्नालोक: स्फुरत्युच्चै: सततं नेत्रसौख्यद: ।।1760।।
वैमानिक देवों में पुण्यफल की महिमा का चित्रण―पुण्य का फल स्वर्गलोक में और ऊपर के विमानों में है । जैसे पाप का फल विशेष नरक में उत्पन्न होकर भोगना पड़ता है ऐसे ही पुण्य विशेष फलित होता है स्वर्गों के ऊपर के विमानों में । उन स्वर्गादिक में रात दिन का विभाग नहीं । सूर्य चंद्र तो यहीं मध्यलोक मे हैं, ऊर्ध्वलोक में नहीं हैं । वहाँ तो रत्नों का ही बहुत बड़ा प्रकाश है, जो नेत्रों को सुख देने वाला है । सूर्य को किरणें तो तीक्ष्ण होती हैं । सूर्य की किरणों की ओर तो आँखें भली प्रकार देख भी नहीं सकतीं, लेकिन वहाँ स्वर्गों में ऐसे रत्नों का प्रकाश है जो नेत्रों को सुख देने वाला है । वहाँ रात दिन का भेद नहीं है । लेकिन समय तो सब जगह चलता है । यहाँ हम समय को रात दिन में बाँट लेते हैं, वहाँ रात दिन नहीं किंतु समय का व्यतीत होना तो बराबर निरंतर जारी है । तो पुण्य का यहाँ विशेष फल होता है । पुण्य के अनुकूल ये स्थान बने हुए है जहाँ उत्पन्न होकर ये जीव मनचाहे सुख भोगते हैं ।