वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1780-1781
From जैनकोष
श्रंगारसारसंपूर्णा लावण्यवनदीर्घिका: ।
पीतस्तनभराक्रांता: पूर्णचंद्रनिभानना: ।। 1780 ।।
विनीता: कामरूपिण्यो महर्द्धिमहिमान्विता: ।
हावभावविलासाढया नितंबभरमंथरा: ।। 1781 ।।
मन्ये शृंगारसर्वस्वमेकीकृत्य विनिर्मिता: ।
स्वर्गवासविलासिन्य: संति मूर्ता इव श्रियः ।। 1782 ।।
स्वर्गों में देवों की देवियों की शोभा का चित्रण―उन स्वर्गों में देवों की, इंद्रों की वे देवांगनायें कैसी हैं, उनका वर्णन इन तीन श्लोकों में है । वे देवांगनायें मानो शृंगार का सार हैं । स्वयं ऐसी रूपवान होती हैं कि स्वयं ही उनका रूप शृंगार है और सुंदरता रूप जल की बावड़ी हैं । जैसे बावड़ी में जल भरा हुआ हो इसी प्रकार उनके देह में सुंदरता बसी होती है । देखो सुंदरता क्या चीज है? एक मोही जनों की कल्पना, उनके मन का एक भाव । जैसे यहाँ मनुष्यलोक में कुछ नजर करके देखो वही शरीर जो अत्यंत रूपवान है । रूपवान के मायने कल्पनानुसार गौर रंग, ठीक ढांचा ! उस ही शरीर को रूपवान की दृष्टि से देखते हैं तो उसमें अद्भुत रूप नजर आता है । जब ऐसी दृष्टि करते हैं कि है क्या तो उसमें फिर सुंदरता नहीं जंचती है । कहो कृष्ण रंग वाले से भी उस गौर शरीर में मलिनता हो । जरा उस शरीर के भीतर क्या भरा है? इस पर दृष्टि दें वही मल, मूत्र, खून, पीप, मांस, मज्जा आदि सारी गंदी चीजें भरी हैं, इस प्रकार की दृष्टि देने पर फिर सुंदरता नजर नहीं आती स्वर्गो में तो उन देव देवियों का वैक्रियक शरीर है । सुंदरता भी वहाँ एक कल्पना से बढ़ जाती है और स्वरूपदृष्टि करें तो वहाँ फिर सुंदरता नहीं ठहरती है । एक पदार्थ है, ज्ञेय हो जाता है । जैसा है वैसा जानने में आता है । तो स्वर्गो में ऐसे विवेकी देवों की संख्या अत्यंत कम है । तो वहाँ सुंदरता सभी देवों को जंचती है । वे देवांगनायें सुंदरतारूप जल की बावड़ी हैं । पूर्णमासी के चंद्रमा के समान उन देवांगनाओं का मुख है, वे विनयशील हैं । देखिये विनय से ही सुंदरता बढ़ती है । कोई पुरुष कटुक बोलने वाला हो, कोई खोटी प्रवृत्ति करता है तो कितनी ही सुंदरता उसमें हो, पर वह सुंदर नहीं लगता । वे देवांगनाएँ अति विनयशील हैं, चतुर हैं, सुंदर हैं, महा ऋद्धि की शोभा सहित हैं, मुख के हाव भाव चित्त विकार विलास-भ्रू विकार आदि से भरी हुई हैं और विशेष क्या कहें? वे आचार्य महाराज उत्प्रेक्षा अलंकार में यह बतला रहे हैं कि वे देवांगनायें मानो समस्त शृंगार इकट्ठा कर के बताया गया है कि जो मूर्तिमान लक्ष्मी की तरह शोभा देती हैं । ऐसी विशिष्ट रूपवान देवांगनायें उन देवों को प्राप्त होती हैं और वे देव ऐसी देवांगनावों के साथ सुख ही सुख में रहकर सागरों पर्यंत का समय ऐसा बिता देते हैं कि कुछ पता ही नहीं पड़ता । वे अंत में मरण कर के मध्यलोक में गिरते हैं और पशु पक्षी आदि बनते हैं । इस प्रकार पुण्यफल के वर्णन में स्वर्गो का वर्णन किया जा रहा है, पर ज्ञानी जीव इस पुण्य फल को औपाधिक और हेय ही समझते हैं ।