वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1783
From जैनकोष
गीतवादित्रविद्यासु श्वंगारसभूमिषु ।
परिरंभादिसर्वेषु स्त्रीणां दाक्ष्यं स्वभावत: ।। 1783 ।।
स्त्रियों की प्रकृत्या गीतादिचतुरता―सांसारिक सुखों में गीत नृत्य वादित की प्रधानता है । जहाँ कोई सुख में हो उसे फिर ये गीत बाजा नृत्य आदिक का मौज सुहाता है । स्वर्ग एक पुण्य का फल है तो वहाँ गीत नृत्य आदिक विद्यावों में वे देवांगनाएँ अत्यंत प्रवीण हैं । उनकी चतुराई का वर्णन करते हुए आचार्य देव यहाँ -यह कह रहे हैं कि गीत नृत्य व बाजे आदि में स्त्रियों में स्वभाव से प्रवीणता होती है, और फिर वहाँ कुछ विशेष ऋद्धियां होती हैं, कुछ चतुराइयां विशेष होती हैं तो देवांगनाओं में गीत बाजे व नृत्य आदिक विद्यावों में प्रवीणता अत्यंत अधिक है । ऐसे उन गायन नृत्य और संगीत के सुंदर वातावरण में वे देव और इंद्र अपना पुण्यफल भोगते हैं । यह सब वर्णन सुनते हुए यह आत्मा का सुध ध्यान से न अलग करना कि ये सारी बातें आत्मा के स्वभाव से विपरीत हैं । आत्मा का आनंद तो आत्मस्वभाव में जितनी दृष्टि रहे अपने आत्मा के निकट अपने उपयोग को जितना बसाये उतना ही आत्मीय आनंद है । शेष तो सब विडंबनायें हैं, कल्पित मौज हैं, उस मौज के बाद दुःख भोगना पड़ता है । लेकिन पुण्य का इस प्रकार का फल ही है कि वैषयिक सुखों के अनुभवरूप में वह फल आता है ।