वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1784-1785
From जैनकोष
सर्वावयवसंपूर्णा दिव्यलक्षणलक्षिता: ।
अनंगप्रतिमा धीरा: प्रसन्नप्रांशुविग्रहा: ।। 1784। ।
हारकुंडलकेयूरकिरीटांगदभूषिता: ।
मंदारमालतीगंधा अणिमादिगुणान्विताः ।। 178 5।।
प्रसंनामलपूर्णेंदुकांता कांताजनप्रिया: ।
शक्तित्रयगुणोपेता सत्वशीलावलंबिन: ।। 1786 ।।
विज्ञानविनयोद्दामप्रीतिप्रसरसंभृता: ।
निसर्गसुभगा: सर्वे भवंति त्रिदिवौकस: ।। 1787।।
देवों के देह की निसर्गसुभगता―उन स्वर्गों में देव किस प्रकार के होते हैं, उनका कुछ यहाँ वर्णन चल रहा है । वे समस्त देव समस्त अवयवों में संपूर्ण और सुडौल हैं । उन देवों के समचतुरस्रसंस्थान का उदय है । समचतुरस्रसंस्थान के नामकर्म के उदय से शरीर पूर्ण सुडौल रहता है, उनकी नाभि शरीर के ठीक मध्यस्थान में होती है, उस नाभि से उपर तथा नीचे दोनों ओर की लंबाई बराबर होती है । चाहे शरीर छोटा हो, चाहे बड़ा हो, सभी देवों का शरीर सुडौल होता है । उनका जो मूल शरीर है वह तो वहीं रहा करता हैं, किंतु उनका जो वैक्रियक शरीर है वह आसपास कुछ विचरण भी करता है । तो वह मूल शरीर अत्यंत सुडोल है, दिव्य मनोहर लक्षण से सहित है । मनुष्यों के शरीर से उनके शरीर में विलक्षणता है, वही उनमें दिव्यता है । उस वैक्रियक शरीर में न तो बुढ़ापा है, न पसीना है और न थकावट आदिक हैं । यही शरीर के दिव्य लक्षण हैं । वह कामदेव के समान सुंदर है । कामदेव कोई देव नहीं है जिसका नाम कामदेव हो, और कामदेव की एक पदवी है । कामदेव पदवी के धारी पुरुष वे होते हैं जो पूर्ण सुंदर होते हैं । भाव साहित्य में तो काम नाम है मनोज का । उस कामभाव में भावुक को सुंदरता के प्रति आकर्षण होता है, इसलिए साहित्य में कामदेव का रूपक देवता के समान खींचा है । तो वे समस्त दैव कामदेव के समान सुंदर हैं, धीर हैं, क्षोभरहित हैं व प्रसन्न हैं और विस्तीर्ण शरीर वाले हैं । वहाँ मनुष्यों जैसा विशाद और शोक का स्थान नहीं है । वे सदा दिव्य वैषयिक सुखों में रत रहते, चिंतावों से वे रहित हैं, अतएव उनका हृदय भी प्रसन्न रहता है । उन देवों का शरीर हार, कुंडल, केयूर, किरीट, अंगद आदि आभूषणों से सहित है । स्वयं वे सुंदर हैं और फिर आभूषणों के शृंगार से रहते हैं । मंदार, मालती आदि पुष्पों के समान उन देवों के अंग सुगंधित हैं । उन देवो के पुण्योदय की इतनी विशेषता है कि उनका शरीर स्वयं सुगंधित है । जैसे कि बहुत से सुगंधित पुष्प सुगंध को प्रदान करते हैं ऐसे ही उन देवों के शरीर भी स्वत: सुगंधित हैं । वे देव अणिमा महिमादि अष्ट ऋद्धियों से सिद्ध हैं । जिन में ऐसी शक्ति है कि विक्रिया से अपना छोटे से छोटा शरीर बना दें । कहो इतना छोटा शरीर बना दें कि जो देखने वालों को आश्चर्य के योग्य हो । अपने शरीर को कहो वे इतना बड़ा बना दें कि दिखने वाले शरीरों से कई गुना बड़ा मालूम पड़े । कहो शरीर तो बहुत बड़ा बनायें और वजन उसका बहुत ही कम रहे, और कहो शरीर देखने में बहुत ही छोटा बना दें पर उसका भार इतना अधिक कर दें कि वह किसी से उठाया भी न जा सके । तो ऐसी अनेक सिद्धियां होती हैं । उन सिद्धियों कर के वे देव सहित हैं ।
देवों की विज्ञानादि कुशलता व कांताप्रियता―वे देव कांताजनों को प्रिय हैं । जैसे यहाँ मनुष्यों में कोई -कोई मनुष्य अपनी स्त्री से अप्रिय भी हो जाते हैं किसी आचरण से या रूप आदिक से या प्रवृत्ति से वे सुहाते नहीं हैं, किंतु वहाँ सभी देव अपनी देवांगनाओं को प्रिय होते हैं, क्योंकि उनके योग्य उनके गुण भी हैं, शारीरिक कलायें भी हैं । उन देवों में तीन गुणी की अधिकता है―प्रभुत्व, मंत्र और उत्साह । प्रभुता सामर्थ्य भी उनमें विशेष है, जिस और चलें, जिन सांसारिक कार्यों को वे कर चलें तो उनमें उनकी दक्षता है । तभी तो देखिये कि जब समवशरण की रचना करने को तैयार होते हैं तो अंतर्मुहूर्त में ही समवशरण की रचना कर देते हैं । इतनी बड़ी रचना मनुष्यों से करायी जाय तो मनुष्य कई वर्षों में भी वैसी रचना न कर सके । ऐसी अद्भुत समवशरण की रचना वे क्षणमात्र में बना देते हैं । उनमें ऐसी ऋद्धियाँ हैं । कुछ तो अपने वैक्रियक शरीर से रूप धारण कर लेते हैं, कुछ यहाँ वहाँ के अमूल्य पाषाण रत्न आदिक से कारीगरी की कला द्वारा बहुत ही जल्दी तैयार कर देते हैं । तो प्रभुता उनमें बहुत है, उनमें विचारशक्ति है, मंत्र शक्ति है और उत्साह विशेष है । वे बड़े व्यवहारी हैं और बहुत उत्तम स्वभाव का आश्रय रखने वाले हैं, जिन में परस्पर में बहुत प्रीति बसी होती है । जैसे नारकियों में परस्पर में द्वेष की पराकाष्ठा रहती है ऐसे ही इन देवों में परस्पर में प्रेम व्यवहार की पराकाष्ठा होती है । तो प्रीति से भरे हुए ऐसे स्वर्गो में सभी देव शुभ आचरण वाले होते हैं जहाँ कि परस्पर में किसी भी प्रकार का कलह और संक्लेश न हो और सुखों के भोगने में उनको बाधा न आये, ऐसे वे देव सब पुण्यफल वाले होते हैं ।