वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1789
From जैनकोष
साम्यसामानिकामात्यलोकपालप्रकीर्णका: ।
मित्राद्यभिमतस्तेषां पार्श्ववर्ती परिग्रह: ।। 1786।।
स्वर्गों में जो परस्पर का समागम है वह भी अद्भुत और प्रीति सुख का देने वाला है । सभा के देव, सदस्य कहो, वे सभी उत्तम विचार वाले हैं, और किसी भी समस्या का मंत्रणा करने में उनकी बुद्धि पैनी रहती है । वहाँ सामानिक देव तो इंद्र के तुल्य ही वैभव वाले हैं, केवल एक आज्ञा रहित हैं । वे देव भी उच्च विचार के हैं और प्रीति व्यवहार सुख देने वाले समस्त वाणी व्यवहार के करने वाले हैं । वहाँ अमात्यादिक देव सो मंत्रणा का काम करते हैं, जो इंद्र के साथ रहा करते हैं वे त्रायस्त्रिंश देव भी बड़ी गंभीर बुद्धि वाले हैं । प्रथम तो देवों को अवधिज्ञान होता है तो वे अवधिज्ञान से सारी बातों का ज्ञान कर लेते हैं । कोई बात युक्ति से विचारना होती है तो उसका भी विचार कर लेते हैं, ऐसे उन स्वर्गों में देव पाये जाते हैं । वहाँ लोकपाल देव हैं जिनकी उच्चता और गंभीरता के संबंध में विशेष क्या कहें? इतना ही कहना पर्याप्त है कि वे अपनी शुद्ध दृष्टि न्याय दृष्टि, प्रजाजनों में समता परिणाम से व्यवहार रखने की दृष्टि इतनी विशुद्ध रहती है कि वे एक भवावतारी होते हैं । एक मनुष्य का भव पाकर मोक्ष जाने वाले होते हैं । प्रकीर्णक देव अर्थात् सभी देव और उनके मित्रादिक सभी इष्ट परिवार उनके बहुत अधिक अभिमत हैं, इंद्र के बहुत अनुकूल रहते हैं । इंद्र भी सदा उन सभी के अनुकूल रहते हैं । उनमें परस्पर में प्रतिकूलता की बात कभी भी नहीं आने पाती । इस प्रकार का विशेष पुण्य का फल वहाँ प्राप्त होता है ।