वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1790
From जैनकोष
बंदिगायनसैरंध्रीस्वांगरक्षाः पदातय ।
नटवेत्रिविलासिन्य: सुराणां सेव को जन: ।। 1790 ।।
स्वर्गलोक में देवों की विविध सेवा―उन स्वर्गों में उन देवों की सेवा करने वाले देव है स्वर्गों में दुःख है तो यही कि कोई कम पुण्य वाला है तो विशेष पुण्य वाले के सामने वह कुछ नम्र होकर रहकर उसकी सेवा में अपना महत्व समझना पड़ता है । यह दुःख उनमें विशेष है । वैसे शारीरिक दृष्टियों से देखा जाय तो उनमें किसी प्रकार की वेदना नहीं है । वहाँ विशेष पुण्य वाले देव हैं तो उनके परिकर देव और विशेष रहते हैं । बंदी जन होते हैं जो स्तुति करते हैं, प्रशंसा किया करते हैं । यह भी एक पुण्यफल है । जैसे यहाँ पुण्यवान मनुष्यों के निकट अनेक लोग ऐसे बसा करते हैं जो उनमें गुणानुराग करने में, स्तवन करने में, मन प्रसन्न करने में अपना महत्व समझते हैं । ऐसे ही वहाँ ऐसे विशिष्ट देवों के समीप बंदीजन होते हैं जो उनका गुणगान किया करते हैं । वहाँ दंड धरने वाले देव हैं । जैसे जब कभी अपन लोग समारोह निकालते हैं मंदिर का रथ का तो चांदी के दंड लेकर निकला करते हैं, इसी प्रकार उन बड़े-बड़े देवों के और इंद्रों के साथ दंडधारी देव चला करते हैं । यह केवल पुण्य की बात है । कहीं ऐसा नहीं है कि वे इंद्र इससे रक्षित रहते हों । कोई आक्रमण न कर जाय इसलिए रक्षा के लिए देव हों यह बात नहीं है । वह एक शोभा के लिए चीज है । जैसे यहाँ के चाँदी के दंड शोभा के लिए हैं । लड़ाई में वे दंड काम नहीं लिए जाते, केवल एक शोभा के लिए हैं । इसी प्रकार ऐसे दंडधारी देव इंद्र के साथ इंद्र की शोभा बढ़ाने के लिए रहते हैं । वहाँ गाने वाले देव हैं तथा नाचने वाली विलासिनी अप्सरायें हैं । वे अप्सरायें गीत नृत्यादि में अति कुशल हैं । ऐसे वैभव संपन्न सुखों को वे देव सागरों पर्यंत तक भोगा करते हैं ।