वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1791
From जैनकोष
तत्रातिथ्ययताधारे विमाने कुंदकोमले ।
उपपादिशिलागर्भे संभवंति स्वयं सुरा: ।। 1791 ।।
देवों का सुखद उपपाद―देवों के उत्पन्न होने की उपपादिशय्या है । देखिये जीवन में अनेक और दुःख तो आया ही करते हैं मनुष्य के जीवन में, पर सबसे बड़ा दुःख जन्म का और मरण का है । मरण के समय में जो दुःख होता है उसे तो लोग अपनी बुद्धि में जल्दी ग्रहण कर लेते हैं, मरते समय बड़ा क्लेश होता है क्योंकि उस रोगी को पहिले से देखते रहते हैं कि देखो अब बीमार हो गया, अब श्वांस धीरे चल रही है, अब बहुत धीमी श्वांस चल रही है । अब प्राण निकल रहे हैं । पर मरण से भी विकट दुःख जन्म का है । 9 मास तक वह बच्चा उल्टे मुंह अंगों को संकोचकर पड़ा रहता है अपनी मां के पेट में, जहाँ पर कि अत्यंत गर्मी है, तो विचार करो कि वह कितने कष्ट में होता है, और फिर जन्म के समय में अर्थात् गर्भ से निकलने के समय में उस बच्चे को कितनी वेदनायें सहनी पड़ती हैं? तो जन्म का दुःख मरण के दुःख से अधिक विकट है । देवों में ये जन्म के दुःख बिल्कुल नहीं हैं । तब वे कैसे जन्मते हैं, उनके जन्म की विधि आगे के श्लोकों में विशेषकर बतावेंगे । सामान्यतया ऐसा समझ लेना चाहिए कि वहाँ कुछ नियत स्थान होते हैं जिन्हें उपपाद शय्या कहते हैं । अभी कोई देव नहीं है और थोड़ी ही देर में वहाँ सोये हुए बालक की तरह देव दिखने लगता है । वही उसका जन्म है । उपपाद शय्या पर उन वैक्रियक वर्गणावों का जमाव हो जाता है और वहाँ पुण्यवान जीव आकर उस शरीर को ग्रहण करता है, वही देव का जन्म है । तो उनका जन्म इस विधि से होता है, जैसे कोई सोया हुआ आदमी हो और वह जगकर उठ जाय । ऐसे ही उस उपपाद शय्या पर देव पड़ा हुआ एकदम उठ जाता है, इसी तरह उन देवों का जन्म होता है । तो वहाँ उपपाद स्थान कैसा है, उस स्थान की विशेषता इन 5 श्लोकों में बता रहे हैं ।