वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1797
From जैनकोष
सुखामृतमहांभोधेर्मध्यादिव विनिर्गता: ।
भवंति त्रिदशा: सद्य: क्षणेन नवयौवना: ।।1797।।
प्रकट होने के बाद अंतर्मुहूर्त में देवों की नवयौवनता―स्वर्गों में देव किस तरह उत्पन्न होते हैं, उसका वर्णन चल रहा है । वे मनुष्यों की नाई गर्भ में नहीं आते किंतु उनकी उपपादशय्या बनी हुई हैं, ऐसे अच्छे सुहावने लंबे चौड़े चबूतरे समझिये जो छतरियों से ढके हुए हैं, मणियों से जड़ित हैं ऐसी कोई रमणीक सुंदर शय्यायें होती हैं । उस उपपादशय्या पर वे देव ऐसा उत्पन्न होते हैं कि जैसे मानो कोई समुद्र में से निकल आये, इसी प्रकार उस उपपादशय्या पर देव शरीर बन जाता है । पहिले कुछ नहीं दीखता था लो अब वहाँ एक बालक दिखने लगा । इस प्रकार वे देव उपपादशय्या पर स्वयं ही प्रगट हो जाते हैं । यों समझिये कि देव सुखरूपी महा मंदिर में से तत्काल नवयौवन होकर उत्पन्न होते हैं । कुछ ही मिनटों में वे जवान हो जाते हैं, बुढ़ापा वहाँ आता ही नहीं है । इस प्रकार सुखपूर्वक उनका जन्म हुआ करता है । यह जन्म या एक रोग है, तो वह तो रोग है ही क्योंकि वह शरीररूप अवस्था है, किंतु जिस प्रकार मनुष्य और तिर्यंच का उपपाद होता है उस तरह दुःख पूर्वक देवों का जन्म नहीं होता है और नारकियों के भी कुछ स्थान होते हैं जहाँ से वे उत्पन्न होते हैं । लेकिन वे सर्व दुःखरूप हैं । प्रथम तो उनकी उत्पत्ति ऊपर से नीचे गिरकर होती । जमीन पर उनकी उत्पत्ति नहीं होती किंतु जो जमीन का ऊपर का हिस्सा है, यों समझिये कि जैसे कोई छत से उत्पन्न होकर नीचे गिर जाय इसी प्रकार नारकी जीव जमीन के ऊपर से नीचे गिरते हैं, उनका जन्म दु:खपूर्ण है परंतु देवों का जन्म सुहावना और बहुत सुख के वातावरण में होता है ।