वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1805
From जैनकोष
मामेवोद्दिश्य सानंद: प्रवृत्त: किमयं जन: ।
पुण्यमूर्ति: प्रिय: श्लाध्यो विनीतोऽत्यंतवत्सल: ।।1805।।
जन्मसमय उपस्थित अत्यंत वत्सल देवगण के प्रति देव का वात्सल्य―ये सब जो देव समूह दृष्टिगोचर हो रहे हैं तो यह केवल इतना ही नहीं कि यह है । है तो सही किंतु यहाँ तो यह विदित हो रहा है कि ये सब लोग मेरा ही उद्देश्य कर के बड़े आनंद के साथ खड़े हुए हैं । यह है इतनी ही बात नहीं, यह निकट है और उसके खातिर ये खड़े हुए ऐसे प्रतीत हो रहे हैं इन सबकी दृष्टि मेरी ओर लग रही है । ये सब बड़ी उत्सुकता से मुझे देख रहे हैं । मुझ से ही कुछ कहना चाहते हैं ऐसा नजर आ रहे हैं । ये बड़े पवित्र रमणीक पुण्यवान नजर आ रहे हैं । इनकी मुद्रा, इनकी प्रसन्नता ये सब बाहर टपक रहे हैं, ऐसे ये देव हैं जो बहुत प्रिय हैं, ये प्रशंसनीय हैं, जिनकी मुद्रा, जिनका विचार, जिनका बर्ताव एक उत्तम पुरुष जैसा करने योग्य है । ये प्रशंसनीय पुरुष हैं, ये सब कितना विनय के साथ खड़े नजर आ रहे हैं? यह उत्पन्न हुआ देव ज्यों-ज्यों क्षण व्यतीत होते हैं त्यों-त्यों उन समागमों को ऐसा आश्चर्य और प्रतीक्षा पूर्वक देख रहा है । ये तो बहुत चतुर मालूम होते हैं । ये साधारण जन नहीं हैं, बहुत बुद्धिमान जन हैं, ये कैसा मेरी ओर आकर्षण के साथ खड़े हुए हैं । इस प्रकार वहाँ आये हुए उन देवों के प्रति वह उत्पन्न हुआ देव विचार करता है ।