वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1807
From जैनकोष
इदं पुरमतिस्फीतं वनोपवनराजितम् ।
अभिभूय जगद्भूत्या वलतीव ध्वजांशुकै: ।।1807।।
वनोपवनराजित अतिस्फीत जन्मपुर का प्रथमावलोकन―स्वर्गों में हैं वे सब विमान ही विमान । उन सबको वैमानिक देव इसी लिए कहते हैं । पृथ्वी नहीं है स्वर्गों में । वह पृथ्वी तो है पर जैसे इस पृथ्वी पर मनुष्य तिर्यंच विचरते हैं ऐसी पृथ्वी नहीं है किंतु ज्योतिमान वह एक विमान के रूप में है । वह विमान बहुत विस्तीर्ण होता है, इसलिए उन्हें एक पृथ्वी कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं है, लेकिन पृथ्वी में और विमानों में अंतर है । पृथ्वी के तीनों ओर वातवलय होते हैं, सभी ओर जिस पर निवास है उस भाग को छोड़कर किंतु विमानों के लिए वातवलय की आवश्यकता नहीं है । वह विमान एक ज्योतिमान है । तो जो ज्योतिमान चीज होती है वह अपने आप में ऐसी लघुता धारण किए हुए होती है कि वह आकाश में इस प्रकार स्वयमेव ठहर सकती है । तो वह विमान है जहाँ ये देव उत्पन्न होते हैं । वे विमान बहुत योजन कोश के हैं, तो उनके भीतर नगरों जैसी रचना पायी जाती है । यह नवीन उत्पन्न हुआ देव उस दृश्य को निरखकर चिंतन कर रहा है कि यह नगर अति विस्तीर्ण है । इस नगर में सारे महल बड़ी शोभा धारण किए हुए हैं, इन सभी महलों में ऐसी विशिष्ट संपदा है कि संपदा द्वारा मानो ये देव सारे संसार को जीतकर आये हैं इसलिए इन महलों पर ध्वजा फहरा रहे हैं । जैसे कोई पुरुष किसी पर विजय प्राप्त कर के आये तो वह अपने महल में ध्वजा फहराता है इसी तरह यह सारा नगर भी खुशी के मारे जगमग हो जाता है, बहुत से रत्न मणि जगमगाते रहते हैं तो वहाँ अब एक अद्भुत बात नजर आ रही है । मानो वे देव सारे जगत की संपदा को जीत लाये हैं, इस कारण उन महलों में ध्वजा फहरा रहे हैं । वह फहराती हुई ध्वजा यह सूचित करती है कि ये देव जगत की समस्त संपदा को जीत लाये हैं । ऐसी सुख संपदा से परिपूर्ण यह नगर अति विस्तीर्ण है । सब कुछ नया-नया सा निरख रहा है ना, इससे कुछ संभ्रम के साथ कुछ चिंतन के साथ इन समस्त समागमों को देख रहा है ।