वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1810
From जैनकोष
अद्य नाथ वयं धन्या: सफलं चाद्य जीवितम् ।
अस्माकं यत्त्वया स्वर्ग: संभवेन पवित्रित: ।।1810।।
उपस्थित देवों द्वारा उत्पन्न देव को धन्यवाद―जब वहाँ सौधर्म स्वर्ग में इंद्र उत्पन्न होता है तो उत्पन्न होने के बाद उपपाद शय्या से उठता हुआ उस विस्मय के साथ निरखता है कि यह सब कौनसा देश है? ये लोग कौन हैं? उस समय वहाँ उपस्थित हुए मंत्री जन विनय पूर्ण वचनों से जवाब देते हैं और कहते हैं कि हे नाथ ! हम सब लोग आज धन्य हुए हैं । हम लोगों का जीवन आज सफल हुआ है और आपने स्वर्गों में उत्पन्न होकर स्वर्गो को पवित्र किया है । सीधा एकदम यों न कहकर कि यह स्वर्ग है, यह अमुक है एक अलंकार रूप से या कुछ अन्य प्रशंसा रूप से सर्व परिचय मंत्री गण दे रहे हैं और ठीक भी है । वहाँ जो इंद्र होकर उत्पन्न होता है वह कुछ विशेष भाग्यशाली और धर्मात्मा जीव है । जिन्होंने मनुष्यभव में धर्म का विशेष आचरण किया है, सम्यक्त्व की ओर जिनकी विशेष भावना रहती है, आचरण भी जिनका पवित्र है और व्रत नियम आदिक से भी जिन्होंने आत्मा का पुण्य किया है ऐसे पुरुष ही इंद्र जैसे महर्षि देवों की पदवी प्राप्त करते हैं । ऐसे आत्मा के प्रति धन्यवाद कहना और उस आत्मा के स्वर्ग में आने से अपना जीवन सफल मानना यह एक प्राकृतिक ही बात है । लोक में आत्मा का एक धर्म ही शरण है । सर्वत्र दृष्टि पसारकर देखो―कहां जाना, कौन यहाँ शरण है । किसकी शरण पहुंचें तो आत्मा को शांति प्राप्त हो? अपना शरण यहाँ अन्य कोई नहीं है । एक अपने ही आत्मा में बसा हुआ जो शुद्ध परमात्म तत्व है वह ही एक शरण है, ऐसे ही पुरुष इस इंद्र पदवी को धारण करते हैं । रह गया उनका राग शेष, तो उस रागभाव के कारण ऐसा विशिष्ट पुण्य बंध होता है कि जिससे स्वर्गों में उच्च पदों पर उनका अधिकार होता है । तो ये मंत्री जन कह रहे हैं कि हे नाथ ! आपने इस स्वर्ग को पवित्र किया है, अतएव हम सब स्वर्गवासी देव धन्य हो गए ।