वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 182
From जैनकोष
जायते यस्य य: साध्य: स तेनैव निरुध्यते।
अप्रमत्तै: सुमुद्युक्तै: संवरार्थ महर्षिभि:।।182।।
आस्रव का प्रतिपक्षी भाव―जिसका जो साध्य है अर्थात् जिस प्रकार से जो बात बनती है वह उस ही तरह से रुकती है अर्थात् उसके प्रतिपक्षी उपायों से वह रुक जाती है, इसी प्रकार अप्रमत्त सावधान उद्यमी साधुजनों को संवर के लिए आस्रव से उल्टा उपाय करना चाहिए अर्थात् कर्मों का आना जैसे क्रोध से हो रहा है तो कर्मों का आना रोकना है तो क्रोध से उल्टा भाव बना लीजिए, कर्म रुक जायेंगे। जिस कारण से आस्रव है उसका विरोध भाव लाया जाय तो आस्रव का अभाव हो जायेगा।
जीव का दु:खकारी व हितकारी भाव―जीव को दु:खकारी आस्रवभाव ही है, जीव का हितकारी भाव तो स्थायीभाव है। जो भाव सदा रह सके उस भाव से जीव को हित है। जो सदा रह सकता है वह भाव शांत है, धीर है, उदार है, सहज है, स्वाधीन है। जो भाव स्थिर न रह सके वह भाव क्षोभरूप है, पराधीन है, उससे कोई हित नहीं हो सकता। जैसे मान लो पुण्य के ठाठ हैं, उदय अच्छा है, अनेक साधन ठीक चल रहे हैं, ठीक है चल तो रहे हैं और उन साधनों में मौज भी मानी जा रही है और मौज भी ठीक चल रही है लेकिन ये सब स्थायी चीजें तो नहीं हैं। बड़े-बड़े पुण्यवान पुरुष इसी बल पर तो विरक्त हुए हैं, हालांकि मिला है सब कुछ, पर स्थायी नहीं है तो उससे पूरा न पड़ेगा जीव का। जीव एक उतना ही तो नहीं है जितना इस भव में है, इस क्षेत्र में है, यह तो अमर है, सदा काल रहेगा। रूपक बदलता रहता है इस कारण यह बहुत जरूरी है कि हम धर्म में लगें, आस्रव का निरोध करें, शांतस्वभाव का आदर करें, कषायों से दूर हटें। ये सब बहुत जरूरी चीजें हैं। तो संवर के लिए महर्षि जनों को आस्रव के निरोध के लिए उससे विरुद्ध परिणाम अर्थात् आत्मा के अनुकूल परिणाम करना जरूरी है। वह प्रतिपक्षी परिणाम क्या है? उसका वर्णन आगे के श्लोक में कर रहे हैं।