वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 183
From जैनकोष
क्षमा क्रोधस्य मानस्य मार्दवं त्यार्जवं पुन:।
मायाया: संंगसन्यासो लोभस्यैते द्विष:क्रमात्।।183।।
क्रोध के प्रतिपक्षी क्षमाभाव से क्रोध का विघात―क्रोध कषाय का प्रतिपक्षी भाव तो क्षमा है। क्रोध और क्षमा का परस्पर में बैर है, विरोधीभाव है एक दूसरे के। जहाँ क्रोध है वहाँ क्षमा नहीं, जहाँ क्षमा है वहाँ क्रोध नहीं। क्रोध को जीतना हो तो क्षमा से जीतिये। क्रोध करने के कारण जो कर्मों का आस्रव होता है उस आस्रव को रोकना है तो क्षमाभाव लावें वह आस्रव रुक जायेगा। क्षमा का स्वभाव तो सदा रहना चाहिए। किसी प्रसंग में किसी अन्याय पर क्रोध भी आ जाय तो भी क्षमा का स्वभाव तो रहना ही चाहिए क्रोध करने पर भी, क्योंकि यदि अंतरंग में क्षमा की प्रकृति नहीं है और क्रोध कर रहे हैं और क्रोध की ही आदत है तो उसकी बुद्धि भ्रष्ट होगी और उससे सही काम नहीं बन सकता। कभी क्रोध आ भी जाय तो भी क्षमा की प्रकृति न मिटनी चाहिए क्षमा से कर्मों का आस्रव रुकता है।
क्षमा गुण की प्रधानता―सब गुणों में क्षमा की बड़ी प्रधानता है। किसी पुरुष में अनेक गुण हों और क्षमा गुण न हो, क्रोध की ही आदत सदा बनी रहती हो तो क्रोध को ज्वाला बताया है और इस ज्वाला में सब गुण भस्म हो जाते हैं। आप किसी का कितना ही कितना ही उपकार कर रहे हों, बहुत मदद की है, किसी समय विकट क्रोध कर डाले उस पर, तो उसमें फिर कृतज्ञता नहीं रह पाती। किए हुए समस्त काम उसने खराब कर लिये। क्षमा से चित्त भी शांत रहता है आत्मा भी शांत रहता है और शांति के लिए, धर्मलाभ के लिए जो कुछ कर्तव्य है, वह सब भी सूक्ष्मता से होता रहता है। तो क्षमा क्रोध का बैरी है। इस क्षमा के द्वारा क्रोधजनित आस्रव को रोकना चाहिए।
मार्दवभाव से मानकषाय का विघात―मान कषाय का बैरी है नम्रता, कोमलभाव। जहाँ मान है वहाँ नम्रता नहीं रह सकती। जहाँ नम्रता है वहाँ मान नहीं रहता। मान कषाय की उपमा कठोरता से दी है। किसी का मान पत्थर जैसा है, किसी का मान हड्डी जैसा है, किसी का मान काठ जैसा है और किसी का मान बेंत जैसा है। चार डिग्रियाँ मान कषाय की कही हैं। तो यह नम्रता की ख्याति के लिए दृष्टांत है। बेंत जैसे निमावो निम जाता है। बेंत से अधिक कठोर है काठ और काठ से अधिक कठोर है हड्डी और सबसे अधिक कठोर है पत्थर लोहा भी नम जायेगा। लोहे पर वज़न पड़े तो नम जायेगा और पत्थर पर वज़न पड़े तो नमने का काम नहीं है, टूट जायेगा। तो ऐसे ही मान भी किसी का बहुत कठोर, किसी का कम कठोर है, मान कषाय में कठोरता आ जाती है। कड़ा चित्त हो जाय, किसी को कुछ न समझे, अपना ही मान रखने का उपाय स्वप्न बना रहे, उस मान कषाय से जो कर्मों का आस्रव होता है उस आस्रव को रोकना है तो नम्रता का परिणाम करना चाहिये।
सरलता से मायाकषाय का विघात―माया कषाय का शत्रु है सरलता अर्थात् जहाँ सरलता है वहाँ मायाचार नहीं, जहाँ मायाचार है वहाँ सरलता नहीं। बच्चों में सरलता बहुत नजर आती है। उनमें मायाचार नहीं। किसी बात को मना कर दो, अमुक बात न कहना तो कहो वह यह कह बैठे, आपने जो बात कही कि वह मैं न कहूँगा। आप ऐसा कहते थे ना, मैं नहीं कहूँगा, आपने रोक दिया, तो रुका कहाँ, कह तो डाला। तो वहाँ सरलता अधिक है और सरलता होने के कारण ही बच्चे प्रसन्न रहा करते हैं। किसी बड़े को बच्चों से ईर्ष्या हो सकती है कि हम प्रसन्नता नहीं रहते। बच्चे बड़े खुश रहते, उन्हें न कोई चिंता है, न बोझ है, खेलते रहते। खुश रहते। प्रसन्न रहते हम इतना मरे जा रहे हैं। तो बच्चों में प्रसन्नता का जो गुण है वह गुण हममें नहीं है। उनमें सरलता है क्षमा भी है। अभी थोड़ा लड़ गये किसी से और एक ही मिनट बाद भूल गए तो ये कषाय जहाँ उग्र हो जाती हैं वहाँ प्रसन्नता नहीं रह सकती। मायाचार से उत्पन्न होने वाले आस्रव को रोकना है तो सरलता की वृत्ति कीजिए। सरल परिणामों से यह आस्रव रुक जाता है।
उदारता से लोभकषाय का विघात―लोभ कषाय का प्रतिपक्षी है परिग्रह के त्याग करने का भाव, उदारता। जहाँ उदारता है वहाँ लोभ नहीं है। लोभ कषाय के करने से जो कर्मों का बंध होता है उस बंध को दूर करना है तो उदारता आनी चाहिए, पवित्र परिणाम यह भाव रहना चाहिए कि मेरे आत्मा से ये सभी पदार्थ भिन्न हैं। अन्य समागमों से जुदा रहने का स्वरूप ज्ञान में बसा रहना चाहिए तब लोभ दूर होता है।
क्षमादिक गुणों से सर्वत्र लाभ―क्षमा, मार्दव, आर्जव व उदारता, इन चार प्रकार के धर्मरूप परिणामों से इस जीव को परमार्थिक लाभ तो है ही, पर आर्थिक लाभ भी है। कोई व्यापारी क्रोधी बन रहकर धनार्जन में सफल नहीं हो सकता। उसके पास जाने में ग्राहक को भय लगता है, घृणा हो जाती है। उसके पास कोई नहीं बैठना चाहता। जो घमंडी व्यापारी है उससे भी लोग दूर रहते हैं। मायाचार वाले से भी लोग दूर रहा करते हैं। जिसके विषय में यह पता पड़ जाय कि यह बड़ा मायावी पुरुष है दगाबाज है, छली है, कपटी है तो फिर उसका व्यापार नहीं चल सकता। इसी प्रकार जो लोभी है उसका भी व्यापार नहीं चल सकता, क्योंकि लोभकषाय के रंग में रंगा होने से उसके वचनों में, उसकी कृति में, उसके व्यवहार में फर्क आ जाता है। किसी का जरा भी सत्कार न कर सका, कुछ भी दूसरों के सत्कार में व्यय न कर सका तो उसका काम आगे कहाँ चलेगा? तो कषायों के कम करने से आर्थिक लाभ भी है और पारलौकिक लाभ भी है। इन चार प्रकार के धर्मों से अपने आपके आत्मा को पवित्र करें और कर्मों के आस्रव को रोके।
धर्म की रक्षकता―आज के समय में लोग धर्म की बात को ढकोलसा मानते हैं और यह बात सच भी है। धर्म का असली रूप, असली जड़ समझ में न आये तो धर्म के नाम पर जो कुछ भी किया जाय वह ढकोसला है और लोगों की समझ में यह आयेगा ही कि धर्म तो एक ढकोसला है, कोई तत्त्व की चीज नहीं है, किंतु धर्म क्या है, स्वरूप क्या है और वास्तविक मायने में धर्म का परिणाम आये तो उसका क्या प्रभाव पड़ता है? इस बात का परिचय हो जाय तो वह धर्म का आदर किये बिना रह नहीं सकता। धर्म में न कोई मजहब है, धर्म में न कोई किसी प्रकार का भेदभाव है। धर्म तो धर्म है। आत्मा का स्वभाव प्रकट हो उसका नाम धर्म है। क्षमा, नम्रता, सरलता, उदारता ये परिणाम हों तो उस आत्मा को भी शांति मिलती है और भविष्य भी उज्ज्वल रहता है। धर्म ढकोलसा नहीं है किंतु आत्मा का सच्चा रक्षक है।
स्थायीभाव के आदर का अनुरोध―भैया ! विषय कषाय संबंधी अस्थायी भावों से जीव का पूरा न पड़ेगा। इन अस्थायी समागमों से जीव का कुछ हित न होगा। बहुत धन है तो भी अनेकों के देखने में आया है कि कुछ ही दिन बाद उनकी स्थिति अत्यंत नाजुक हो जाती है। जिनकी स्थिति अत्यंत नाजुक है कुछ दिन बाद वे बड़े भरे पूरे नजर आते हैं। ऐसे ही शरीर की बात देखो। विश्वास पर तो सब कुछ कह सकते हैं मगर पक्की बात कुछ भी नहीं कह सकते। कोई पुरुष शरीर से बड़ा चंगा है। कुछ ही समय बाद क्या स्थिति गुजर जाय इसे क्या पता? कहो रुग्ण हो जाय, कहो रंग बदल जाय। तो जो चीज मायारूप है, भिन्न है, पर है वह कैसे ही मिल जाय, पर वह आत्मा को हितरूप नहीं है। आत्मा का विवेक आत्मा को हितरूप है। अस्थायी और स्थायी रस में विवेक करके स्वाधीन, अभिन्न निज स्थायी भाव का आदर करो, अवश्य कल्याण होगा।