वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1824
From जैनकोष
इदं मत्तगजानीकमितोऽश्वीयं मनोजवम् ।
एते स्वर्णरथास्तुंगा वल्गंत्येते पदातय: ।।1824।।
हाथी, अश्व, रथ, पदाति सेना के विषय में प्रबोधन―अब मंत्री उस सेना के संबंध में परिचय दे रहे हैं कि हे नाथ ! यह आपकी मदोन्मत्त हाथियों की सेना है । कहीं वे हाथी तिर्यंच नहीं हैं, वे सब देव ही हैं, वहाँ कोई कष्ट की बात नहीं है, भूख, प्यास, या तृषा आदिक की वहाँ कोई वेदनाएँ नहीं हैं पर कुछ देवों के कर्मों का उदय ही ऐसा है कि जो अधिक पुण्यवान देवों की सेवा किया करते हैं । तो यह बहुत प्रचंड बलशाली मदोन्मत्त अनेक कलावों सहित हस्तियों की सेना है और यह देखो बड़े वेग वाली अश्व सेना है । वहाँ कोई अस्व (तिर्यंच) भी नहीं हैं, वे देव ही हैं जो अश्व का रूप रख लेते हैं । यह चर्चा स्वर्गों की चल रही है । स्वर्ग और नरक ये यद्यपि आंखों नहीं दिख रहे लेकिन जो वर्णन जैन शासन में किया गया है स्वर्ग और नरकों के संबंध में वह सब यथार्थ है । कैसे यथार्थ है उसे एक युक्ति से ही परख लीजिये । जिनेंद्र देव ने जितना जो कुछ वर्णन किया इस समस्त वर्णन में कुछ वर्णन तो युक्ति और अनुभव में उतारा जा सकता है और कुछ वर्णन ऐसा है कि सामने ही नहीं है, विचार ही क्या करें? युक्ति अनुभव कहाँ लगायें, कुछ ऐसी परोक्षभूत चीज का वर्णन है, किंतु जब हम जिनेंद्र देव के उपदेश में से 7 तत्व 9 पदार्थ वस्तुस्वरूप आदिक को हम यथार्थ वर्णन पाते हैं तो युक्ति और अनुभव में पूर्ण उतरता है । वस्तु का स्वरूप जैसा नपे तुले नय और शब्दों में वर्णन किया है वह सब मुक्ति और अनुभव में पूर्ण उतरता है । तो जिनकी वाणी युक्ति और अनुभवजन्य स्वरूप को यथार्थ बता रही है तो उनके समस्त वचन प्रमाणभूत हैं । कितनी ही चीजें हम आँखों नहीं देखते हैं परंतु हैं तो सही । तो जिनके धर्म और पुण्य के कर्म हैं उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है जिन्होंने अधर्म और पाप के कर्म किये हैं उन्हें नरक गति प्राप्त होती है । इंद्र को परिचय कराया जा रहा है कि हे देव ! इस तरफ देखो ये सब स्वर्ण रथ हैं । स्वर्ण निर्मित यह आपके रथ की सेना है, और इस तरफ देखते ये ऊँट खड़े हुए हैं, यह सब आपकी पदातियों की सेना का समूह है, इस प्रकार सेनाओं का परिचय कराया जा रहा है उस नवीन उत्पन्न हुए सौधर्म इंद्र को ।