वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1828
From जैनकोष
अहो तप: पुरा चीर्णं मयान्यजनदुश्चरम् ।
वितीर्णं चाभयं दानं प्राणिनां जीवितार्थिनाम् ।।1828।।
पुण्यफल देखकर सुरेश द्वारा पूर्वकृत तप आचार आदि का स्मरण―वह इंद्र अवधिज्ञान से सब कुछ जानकर अपने मन में सोच रहा है कि अहो ! देखो मैंने पूर्व भव में ऐसा तपश्चरण किया, धर्म किया जो अन्य जनों से भी न पाला जाय उस तप के प्रसाद से आज देखो मैं नीची गति से निकलकर एक दिव्य गति में उत्पन्न हुआ हूँ । सौधर्म इंद्र की पदवी पाना यह बहुत बड़े पुण्य की बात है, और जो संयम धारण करता है, तपश्चरण धारण करता है, बड़े विनय का परिणाम उत्पन्न होता है ऐसा पुरुष ही कोई सौधर्म इंद्र पद को प्राप्त करता है । धर्म का समागम हो तो उसके प्रसाद से यह पदवी प्राप्त होती है । ज्ञानी पुरुष इस पदवी को भी कुछ महत्व नहीं देते हैं । यह सब संसार का ही तो चक्र है । इस आत्मा को इस पदवी में भी सत्य संतोष नहीं प्राप्त होता, क्षोभ ही रहता है । इन वैषयिक सुखों के भोगने में भी इस आत्मा को शांति नहीं प्राप्त होती । शांति तो इस आत्मा को अकेला ही रहने में है । यह मैं आत्मा सबसे निराला ज्ञानानंदमात्र केवल अपने ही ज्ञान और आनंद परिणमन को कर सकने वाला और इस ही ज्ञानानंद के परिणाम को भोग सकने वाला मैं निराला सबमें आला आत्मवस्तु हूँ । इस प्रकार जो आत्मतत्त्व का ध्यान करता है वही तो जानने वाला ज्ञान और वही जानने में आ रहा ज्ञान, जब ज्ञान ज्ञेय एक हो जाते हैं उस समय इस ज्ञानी पुरुष को जो अद्भुत आत्मीय आनंद का अनुभवी होता है तो आनंद तो वास्तव में वह है । ये सांसारिक मायाजाल आनंद के स्थान नहीं हैं । ज्ञानी तो यह सोचता है और यह सौधर्म इंद्र भी ज्ञानी होकर इस वैभव में आसक्त नहीं होता है, वह भी यथार्थ बात समझता रहता है लेकिन पुण्य का फल इन्हीं रूपों में फला करता है । अज्ञानी जन तो इस पुण्यफल की चाह करते हैं पर ज्ञानी जन इस पुण्यफल की भी चाह नहीं करते । वह इंद्र विचार करता है कि देखो मैंने पूर्वभव में दुस्तर तपश्चरण किया, अनेक जीवों को मैंने अभयदान दिया, उसके प्रताप से आज इस स्वर्ग लोक में मैं आया हूँ, ऐसा अवधिज्ञान से पूर्व भव के आचरणों का वह विचार करता है । यह सब धर्म का माहात्म्य है ।