वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1829
From जैनकोष
आराधितं मनःशुद्धया दृग्बोधादिचतुष्टयम् ।
देवश्च जगतां नाथ: सर्वज्ञ: परमेश्वर: ।।1829।।
पूर्वकृत चतुर्विध आराधना का स्मरण―वह इंद्र अवधिज्ञान से और भी वह विचार कर रहा है कि मैंने दर्शन ज्ञान चारित्र और तप―इन चार आराधनाओं से उस परम तत्व का आराधन किया था । प्रत्येक मनुष्य के चित्त में कोई एक मुख्य बात आराधना के लिए रहा करती है । जिसमें जिससे प्रीति हो वह उसकी आराधना निरंतर किया ही करता है । धन से प्रीति करने वाला पुरुष निरंतर इस धन के संचय की ही बात सोचा करता है । किसी पुरुष को अपनी स्त्री अथवा अपने पुत्र में अधिक प्रीति है तो वह निरंतर उसका ही ध्यान बनाये रहता है । उसी के ही स्वप्न वह सदा देखा करता है । प्रयोजन यह है कि हर एक मनुष्य किसी न किसी तत्व की आराधना किया करता है । संसारी जन तो बाह्य पदार्थों की आराधना करते हैं किंतु ज्ञानीजन सम्यग्दृष्टि पुरुष दर्शन ज्ञान चारित्र और तप की आराधना करते हैं । ये आराधनाएं सब एक ही हैं । अपने आत्मा की आराधना, अपने आत्मा के दर्शन गुण की आराधना, ज्ञानस्वरूप की आराधना ये सब एक ही बात हैं । ज्ञानी लोग तो अपने आंतरिक तपश्चरण करने में अपना उत्साह बढ़ाते रहते हैं । दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप―इन चारों आराधनावों को जिस देव ने पूर्व के मनुष्य के भव में किया था उनका स्मरण अब वह कर रहा है, ओह ! मैंने पूर्वभव में अपने मन के शुद्ध कर के दर्शन ज्ञान चारित्र और तप आदिक आराधनाओं को किया था, उसके फल में आज मैं स्वर्ग में उत्पन्न हुआ हूँ । वह इंद्र विचार कर रहा है । पहिले तो इस प्रकार की शंकायें की थीं कि मैं यहाँ कहाँ आ गया, ये सब पदार्थ क्या हैं, यह कौनसा स्थान है, यह कौनसा क्षेत्र है, यह कौनसा देश है आदिक शंकायें पहिले तो किया था, पर बाद में मंत्रियों ने परिचय दिया । वह खुद अवधिज्ञान के बल से सब कुछ जान रहा है, और किस आचरण के प्रताप से मैं यहाँ स्वर्गों में उत्पन्न हुआ, कैसे यह सब संपदा प्राप्त हुई है, उसका भी स्मरण कर रहा है ।