वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1839
From जैनकोष
तस्मिन्मनोजवैर्यानैर्विचरंतो यदृच्छया ।
वनाद्रिसागरांतेषु दीव्यंते ते दिवौकस: ।।1839।।
देवों का मनोनुकूल वनादिविहार―तत्पश्चात् वे सब देव मन के समान वेग वाले विमानों के ऊपर चढ़कर स्वच्छंद विचरने वाले वनों में पर्वतों पर, समुद्र के तट पर, क्रीड़ा करते रहते हैं, मन बहलाते रहते हैं । मौके पर धर्म की सुध लेने की भी महत्ता होती है । वहाँ सारे जीवनभर सौधर्म इंद्र या अन्य देव धर्म में नहीं लगे रहते हैं अधिक समय तो उनका क्रीड़ा में, विहार में, आराम में व्यतीत होता है । किंतु जब समय आया तो इन सबकी दृष्टि न रखकर केवल एक धर्म के आलंबन का कार्य रहता है, इसीलिए वे महान हैं । अनेक पुरुष तो देवों की सिद्धि का मंत्र पढ़ा करते हैं कि कोई देवता सिद्ध हो जाय तो जैसा हमारा आदेश होगा वैसा वह देव काम कर देगा । पर ऐसा आदेश देने वाले मनुष्य यहाँ हैं कहाँ, पर यह एक उन लोगों के मन का शौक है, और साथ ही देव भी उस ही का सहाय करते हैं किसके पुण्य का उदय है, जिसमें धर्म का संस्कार है । देव और मनुष्यों की बात एकसी ही तो है । मनुष्य भी उसके ही सहायक है जिसमें धर्म है, जिसके पुण्य का उदय है । यही बात देवों में लगा ले । वे कुछ सांसारिक कार्यों को सिद्ध कराने में मनुष्यों से विशेष समर्थ हैं, लेकिन इसका महत्व अज्ञानियों के ही चित्त में है । ज्ञानी पुरुष तो केवल धर्म को महत्व देता है, वह तो इन वैषयिक सुखों से विरक्त रहकर अपनी आयु व्यतीत करता है ।