वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1841
From जैनकोष
महाप्रभावसंपन्ने महाभूत्योपलक्षिते ।
कालं गतं जानंति निमग्ना: सौख्यसागरे ।। 1841 ।।
महाभूतिसहित सुखसागर में निमग्न देवों का कालक्षय―ये देव दिव्य सुख सागर में निमग्न होते हुए व्यतीत होते हुए काल को नहीं जानते । कैसा है यह सुख, कैसा है यह सुख सागर? महा प्रभाव से युक्त है और बड़ी विभूति से उपलक्षित है, जहाँ महान वैभव बना हुआ है ऐसे सुख सागर में वे देव इतना मग्न रहते हैं कि जो समय गुजर गया वह जानने में नहीं आता कि यह कैसे गुजर गया? यहीं की बात देख लो, जिसकी जितनी आयु हो गई है उसे यह नहीं लग रहा क्या कि अरे इतनी आयु कैसे व्यतीत हो गई? यहाँ तो बीच-बीच में बड़ी कष्टप्रद स्थितियाँ भी आयीं, मानो किसी बीमारी से ग्रस्त थे, दिल पर हाथ धरे हुए घबड़ाये हुए बड़ी मुश्किल से समय को काटा, ऐसी भी स्थितियां आयी पर साथ में कुछ सुखी भी रहे, इतने से ही सुख के कारण इतनी आयु व्यतीत हो गई और अब ऐसा लग रहा कि यह इतनी आयु कैसे चली गई, फिर वे तो देव ही हैं । उनका जीवन तो सुख ही सुख में व्यतीत होता है, फिर उन्हें उस जीवन के बीतने में क्या पता पड़े? सागरों पर्यंत की वह आयु पता नहीं पड़ती उस सुख के भोगते हुए मैं कि वह इतनी लंबी आयु कैसे व्यतीत हो गई । इस मनुष्य को जब वृद्धावस्था आती है तो यह ख्याल होता है कि अहो ! मैंने इतना सारा जीवन व्यर्थ ही गंवा दिया, कोई हित की बात न पायी। यों वृद्धावस्था में इस मनुष्य को बड़ा पछतावा होता है। ऐसी ही बुद्धि यदि बाल्यावस्था में आ जाय तो इस मनुष्य का कल्याण हो जाय। पर बाल्यावस्था को तो यों ही अज्ञानता में बिता देता है, युवावस्था को भोग भोगने में बिता देते हैं और अंत में जब वृद्धावस्था आती है तो इसे कुछ अपने आयु की सुध होती है―ओह ! मैंने इतनी बड़ी आयु व्यर्थ ही गंवा दी। ऐसे ही समझो वे देव भी उस सुख सागर में निमग्न हुए सागरों पर्यंत की आयु को व्यतीत कर डालते हैं पर उन्हें यह पता नहीं पड़ता कि इतना बड़ा समय कैसे व्यतीत हो गया?