वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1840
From जैनकोष
संकल्पानंतरोत्पंनैर्दिव्यभोगै: समन्वितम् ।
सेवमाना: सुरानीकै: श्रयंति स्वर्गिण: सुखम् ।। 1840 ।।
देवों की दिव्यभोगसंपन्नता―संकल्प के अनंतर ही उत्पन्न हुए दिव्यभोगों से युक्त सुख को वे देव भोगा करते हैं । यहाँ भी कोई बड़ा पुरुष होता है तो इच्छा करते ही उसे वह चीज सुगमता से प्राप्त हो जाती है । क्योंकि खर्च की कुछ परवाह नहीं, श्रम की भी कुछ परवाह नहीं, जिस चीज की इच्छा की अथवा जिस काम की इच्छा की वह काम तुरंत ही बन जाता है । दुःख सुख से समन्वित सुख वहीं प्राप्त हो जाते हैं । संकल्प करते ही उत्पन्न हुए नाना भोगों को सेवते हुए देवों की सेना सहित वह सौधर्म इंद्र स्वर्ग के सुखों को भोगता रहता है । लोग तो किसी के मर जाने पर कहने लगते कि अमुक तो स्वर्ग सिधार गया । पर उन्हें क्या मालूम कि वह स्वर्ग सिधार गया या नरक सिधार गया । लोगों में कुछ ऐसी परिपाटी थी कि जो अत्यंत वृद्ध पुरुष मरता था जिसने अपने नाती पोते तथा पोता के भी नाती पोता देख लिया हो उसकी अर्थी के साथ चाहे एक चवन्नी भर की ही हो, सोने की एक सीढ़ी सी बनवाकर बांध देते थे, इसलिए कि इस वृद्ध पुरुष को स्वर्ग जाने में कोई कठिनाई न पड़े । हो सकता है कि यह बात अब भी चलती हो । पर उन्हें यह पता नहीं कि सीढ़ी चढ़ने के ही काम में नहीं आती वह तो उतरने के भी काम में आती है । तो लोगों के चित्त में स्वर्ग की बड़ी महिमा समायी हुई है । जो लोग धर्म करते हैं वे करीब-करीब ऐसा चित्त में भाव रखते हैं कि हम देव हों और अच्छी विभूति पायें । किंतु देव होकर भी किया क्या, विभूति भोगकर भी किया क्या? दो चार सागर का समय निकाल ही दिया तो क्या हुआ? समय तो अनंतकाल पड़ा हुआ है । उद्योग ऐसा करें कि अपने आत्मा की पहिचान बने । अपने आपकी उपासना हो और संसार के क्लेश दूर हो सकें । सबसे अधिक बाधक है तो पर्यायबुद्धि का अभिप्राय बाधक है । मेरी यहाँ इज्जत होनी चाहिए । मेरा नाम यहाँ सब जगह बढ़ जाना चाहिए । ये सब पर्यायबुद्धि के लक्षण हैं । जो इन बातों से चिपटता है उसके भाव विशुद्ध नहीं रह सकते । और अंत में उसकी दशा भली नहीं बन सकती । ये देव यह इंद्र संकल्पमात्र में ही प्राप्त हुए भोगों में सुखों में सागरों पर्यंत की आयु व्यतीत कर डालते हैं ।