वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 186
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असंयमरोद्गारं सत्संयमसुधांबुभि:।
निराकरोति नि:शड्.कं संयमी संवरोधत:।।186।।
असंयमविष का दूरीकरण―जो संवर करने में तत्पर पुरुष हैं, संयमी मुनि हैं वे नि:शंक होकर असंयमरूपी विष के उद्गार को संयमरूपी अमृतमय जल से धो डालते हैं। जैसे किसी को किसी कीट-पतंगे का विष चढ़ जाय तो उस विष को दूर करने का एक तो उपाय है नि:शंक होकर कोई मंत्रवादी के द्वारा प्रयोग होना और एक औषधि सेवन का उपाय है। जो पुरुष नि:शंक है, शंकारहित है वह औषधि सेवन करके अपने इस विष को दूर कर लेता है।
समृद्धि में ज्ञान का सहयोग―भैया ! कुछ स्वास्थ्य के बनने में ज्ञान भी मदद करता है। केवल भोजन ही भोजन स्वास्थ्य का कारण नहीं है। अपना ज्ञान होना, दिल की स्वच्छता रहना, चित्त को सही बनाते रहना ये भी शारीरिक स्वास्थ्य के कारण होते हैं। कोई पुरुष कायर बुद्धि का हो, तृष्णा में अति आसक्त हो तो वह इसी कारण परेशान दिल बना रहता है। केवल एक अपने स्वार्थ की ही बात चित्त में बनी रहती है, इसी कारण उसका दिन प्रसन्न भी नहीं रहता। वह अपने को बड़ा बोझ वाला महसूस करता रहता है। ऐसे पुरुष प्राय: मलिन और अस्वस्थ रहा करते हैं। तो लौकिक समृद्धियों में केवल एक परिग्रह का जुट जाना ही कारण नहीं है किंतु अपने ज्ञान का सही होना, विवेक बना रहना, बुद्धि का गतिमान होना यह भी लौकिक सुख का कारण है।
ज्ञानी संतों का तपश्चरण―ये महाव्रती मुनि संयमरूपी अमृतमयी जल से उस असंयम के विष को दूर कर डालते हैं। असंयम में क्लेश है और असंयम में आनंद है, लेकिन जब मोह का तीव्र उदय रहता है तो इस जीव को संयम में आनंद कम मालूम रहता है और असंयम में आनंद मालूम होता है। संयम वास्तविक वह है जहाँ यह ज्ञान अपने आत्मा के स्वरूप में समाये, स्वरूप को जाने, वही वास्तविक संयम है और इस संयम के लिए ही व्यवहार में अन्य संयम किए जाते हैं। केवल जो उपवास या धूप में ठंड में बैठने या अन्य प्रकार के कायक्लेश सहने में संयम मानते हैं उनको संयम में आनंद नहीं आता है। वहाँ भी क्षोभ और खेद बना रहता है और जो इस आध्यात्मिक संयम का आदर करते हैं, आत्मा को जानने का जिनका लक्ष्य है, वे पुरुष बाहरी संयम के पालन करने पर भी चित्त में खेद नहीं रखते हैं।
कर्मनिर्दहन का उपाय विशुद्ध आनंद―कर्मों को जलाने की शक्ति आनंद में है कष्ट में नहीं है। कर्म कष्ट से नहीं खिरा करते हैं, कर्म कष्ट से नहीं रुका करते। कर्मों के भी रुकने का कारण शुद्ध आनंद का अनुभव है और कर्मों के दूर होने का भी कारण शुद्ध आनंद का अनुभव है आत्मा के अनुभव में जो एक अनुपम आनंद प्रकट होता है उस आनंद के कारण से कर्म रुकते हैं और दूर होते हैं ऐसा आनंद ज्ञानी, तपस्वी की तपस्या के समय बना रहता है। अन्य लोग तो यों निरखते हैं कि देखो हाय कैसा धूप में, ठंड में ये साधु महाराज विराजे हैं? दो दिन हो गए, चार दिन हो गए, ये आहार को नहीं उठे हैं, कितना कष्ट सह रहे हैं किंतु यदि वह ज्ञानी साधु है तो वह कष्ट का अनुभव नहीं कर रहा है किंतु जैसे एक व्यापारी को आर्थिक लाभ होते दिख रहा है तो वह उसकी बड़वारी में अपना चित्त बनाये रहता है, इतना हो गया, इतना और होने वाला है इतना और हो जायेगा, ऐसे ही ये ज्ञानी साधु संत आत्मा के अनुभव के प्रति ऐसे तृष्णालु बन गए हैं―यह हुआ अनुभव आत्मा का, अब यह आत्मानुभव बना रहेगा। इसे चिरकाल तक बनायें रहें, इस ओर ही उनका ध्यान रहता है। उन्हें क्लेश कहाँ है? वे तो आनंद की होड़ लगाये हुए हैं। मात्र लोगों को दिख रहा है कि ये उपवास, सर्दी, गर्मी आदि के क्लेश सह रहे हैं। क्लेश सहने से कर्म नहीं कटते किंतु आनंद के अनुभव से कर्म कटते हैं। विशुद्ध आत्मीय आनंद का अनुभव होने से स्वाधीन सुगम उस आनंद के अनुभव से ये समस्त असंयम के जहर दूर हो जाते हैं।
स्वरूपनिर्णय का प्रथम कर्तव्य―हमारा कर्तव्य है कि पहिले तो ठीक निर्णय बनायें, सही निश्चय बनायें कि धर्म के लिए हमें करना क्या है? पहिले तो हम सही जवाब अपने आपसे ले लें, फिर आप धर्म के लिए कुछ भी उद्यम करें उससे पूरा लाभ लेते रहेंगे। अब तक प्राय: यह निर्णय ही नहीं किया कि धर्म के लिए हमें क्या करना है, धर्म के लिए क्या करना होता है? इस निर्णय के बिना पचासों वर्षों की दसलक्षणी हो जायें, पचासों वर्ष के सारे पर्व मना लिए जायें और पचासों बड़े-बड़े समारोह भी कर लिए जायें, किंतु बाद में यह दिखता है कि यह पुरुष तो वहीं का वहीं है, फर्क क्या आया? अरे फर्क जिसमें आना है उसकी तो बात ही नहीं की, उसका चिंतन ही नहीं किया। मैं क्या हूँ, मेरा क्या स्वरूप है और किस प्रकार का में रहूँ, कैसे मैं अपना ज्ञान करूँ तो मुझे शांति मिले? इसका कुछ निर्णय ही नहीं किया। केवल बाहर-बाहर दृष्टि करके मन, वचन, काय के प्रयत्न किए गए हैं। प्रथम कर्तव्य है अपना सही निर्णय कर लेना।
सम्यक्त्व की प्राथमिकता―किसी भींत पर बहुत बड़ी चित्रकारी कराने की जल्दी मचाने की अपेक्षा यह ज्यादा हितकर होगा कि उस भींत कीपहिले खूब सफाई कर लें, उसे पहिले एक सी चिकनी बना दें। यह काम पहिले करने का है, यह काम तो कोई करे नहीं, ऊँची-ऊँची भींत पर बड़े अच्छे कीमती रंगों से चित्र बनाना शुरू कर दे तो चाहे जितना समय खराब कर दे, पर वहाँ कुछ भी लाभ की बात न आयेगी। इसी तरह हम धर्मपालन करने के लिए बहुत यत्न करते हैं। यात्रा पूजन विधान अनेक श्रम करते हैं, उन श्रमों के करते हुए में ही क्रोध आता रहता है। पीछे की ही बात जाने दो, पूजा करने जाते हैं, ध्यान, जाप करने बैठे हैं, जरा सी प्रतिकूल बात होने पर वहीं क्रोध उमड़ आता है। अरे धर्म तो एक ऐसी तैयारी है कि प्रतिकूल बात आये तो वहाँ उस प्रतिकूलता को मिटा दे और अपना आत्मशौर्य भी प्रकट रहे। शांत रहे सुखी रहे, कभी विपत्ति आये, प्रतिकूलताएँ आयें तो वहाँ इस शांतस्वभावी धर्म का और अधिक उपयोग करें।
विपदा में धर्मोत्साह की विशेषता―जैसे कोई राजा करोड़ों रुपये प्रति वर्ष सेना पर खर्च करता हो, 10-20 वर्ष खर्च किया। इतने में किसी शत्रु ने इस राजा पर आक्रमण कर दिया। अब राजा के मन में यह आये कि ये सब सेना के लोग बैठे रहें, पड़े रहें, खूब सोते रहें और करोड़ों रुपये हमने खर्च किये बेकार हैं यह सेना हटाओ, ऐसा उसके चित्त में आये और वह हटा दे तो उसका क्या हाल होगा? जो कुछ रहा-सहा राज्य है वह सब खत्म हो जायेगा, शत्रु अभी ही छुड़ा लेगा। कभी कोई शत्रु आक्रमण करे, उस समय यह विचारे कि अब तक इतना खर्च किया, अब मौका है, इसमें और डबल खर्च करें, उत्साह दें कि शत्रु से सेना भिड़ जाय, सामना करे। वह राजा बुद्धिमान् हे जो सेना को उत्साह दे और डबल खर्च बढ़ा दे और राजा मूर्ख है तो किसी शत्रु के द्वारा आक्रमण करने पर यह विचार करे, हमने बीसों वर्ष करोड़ों रुपया खर्च कर दिया और देखो शत्रु ने आक्रमण कर दिया, ये सेना बेकार है, उसे हटावो। ऐसे ही सोचिये कि अनेक वर्षों से हम धर्म करते चले आये हैं, हम पर कोई विपदा आये और उस समय हम श्रद्धान से डिग जायें, देखो बीसों वर्ष पूजा की, सत्संगति में रहे, गुरु सेवायें की और फल यह हुआ कि यह विपदा आ गई, हटाओ इस धर्म को। इस धर्म ने तो कुछ फायदा ही नहीं दिया। यह उस समय इस धर्म को छोड़ दे तो उस मूर्ख राजा की तरह इसकी गति होगी। विवेकी पुरुष विपदा आने पर धर्म को और दूना उत्साहित करता है, ऐसी विपत्ति के समय के लिए ही तो यह धर्म शरण रहा करता है और विशेष धर्माचरण में लग जाय तो वह बुद्धिमान् है।
धर्म की स्वभावरूपता―धर्म आनंदस्वरूप है, विशुद्ध ज्ञानरूप है। वह धीरे से ज्ञानबल को अंदर ही अंदर करने की चीज है, कहीं हाथ पैर पीटकर परिश्रम बताकर धर्म नहीं लूटा जाता है। धर्म तो शांति से ज्ञान के मार्ग में अपने आपमें स्वयं प्रकट होता है। इस धर्म के प्रसाद से साधुजन कर्मों का संवर करते हैं।