वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 187
From जैनकोष
द्वारपालीव यस्योच्चैर्विचारचतुरा मति:।
हृदि स्फुरति तस्याघसूति: स्वप्नेपि दुर्घटा।।187।।
सद्बुद्धि के पहरे में पापों का अप्रवेश―जिस पुरुष के हृदय में सद्बुद्धि का पहरा लगा हुआ है उसके हृदय में पाप क्या फटक सकते हैं? जीव हृदय पर से सद्बुद्धि का पहरा उठ जाता है तो ये पाप पहरारहित द्वार देखकर शीघ्र घुस आते हैं, पापों में प्रवृत्ति होने के बाद क्लेश होता है। ये पापी पुरुष पाप की क्रियाओं को करते हुए चैन मानते हैं, अपने को बड़ा चतुर समझते हैं, किसी की आँखों में धूल झोंककर किसी पाप और छल के कार्य में कुछ सफल हो गए तो छली लोग अपने को बड़ा चतुर समझते हैं, किंतु पाप समान विपदा और कुछ नहीं है। पाप ही एक विपदा है। जिसके पाप आते हैं उसके यही तो विपदा है। आगे भी विपदा आयेगी। जिसके पाप रुक गए हैं तो यही तो संपदा है। इस समय भी वह सुखी शांत है और भविष्य में भी सुखी शांत रहेगा। जैसे चतुर द्वारपाल मैले असभ्य पुरुषों को दरवाजे में आने ही नहीं देता, महलों में प्रवेश नहीं करने देता, इसी प्रकार जिसके हृदय पर सद्बुद्धि का पहरा लगा हुआ हो तो वहाँ सद्बुद्धि का पहरा पापों को हृदय में फटकने न देगा। इतना साहस होना चाहिए कि कोई कष्ट आये तो ईमानदारी से उस कष्ट को सहन करना मंजूर करें, पर उस कष्ट से विडंबना छुटाने के लिए अयोग्य आचरण न करें।
संयम में अंत:निराकुलता―देखने में तो ऐसा लगता है कि संयमी लोग बड़े दु:खी हैं, मुश्किल से तो उनका भोजन बना और वह भी संतुलित सीमित साधारण और खाने बैठे उसमें मक्खी गिर जाय तो उसे भी छोड़ देते हैं, और ये असंयमीजन बड़े सुख में हैं, दो चार बार जैसा चाहें खाते हैं, खेलते हैं, हँसते हैं, कुछ चिंता नहीं है। इन संयमीजनों को कहीं जाना पड़े, यात्रा करनी पड़े तो कुछ बर्तन, दाल, चावल, घी अनाज वगैरह कितना ढेर इन्हें संग में ले जाना पड़ता है? ये असंयमी लोग बड़े अच्छे हैं। सीधे यों ही चल दिये। जहाँ भूख लगी सब जगह मिलता है। पैसा निकाला, खाया पिया चल दिये। इन असंयमीजनों का परिग्रह भी कम है, खाने को साथ नहीं ले जाना पड़ता, तो देखने में कितना फर्क मालूम हुआ, पर रही भीतर शांति अशांति की बात। उसकी ओर तकें तो कुछ तथ्य की बात मिलेगी। कोई संयमी गृहस्थ जिसको एक बार ही खाने की आदत है नियम है और निर्दोष रहने का जिसने अभ्यास किया है उसे क्या जरूरत है कि जगह-जगह खिड़कियों से झाँके और कुछ खरीदे खाये। वह तो अपनी जगह बैठा हुआ ही प्रसन्न है। समय गुजरा आगे चल दिया। कौनसा उसे कष्ट हो गया? कष्ट तो चित्त की बात है। जिसकी वांछायें बढ़ी हुई हों, जिसको विषयों का प्रेम बढ़ा हुआ हो वह पुरुष, साधन मिले हों तब भी दु:खी, न मिले हों तब भी दु:खी।
आनंद के लिये निरीहता का उपाय―दु:ख का कारण विषयों का साधन नहीं है। दु:ख का कारण विषयों का विकार नहीं है। इच्छा का उत्पन्न होना सो दु:ख का कारण है और इच्छा न रहना सो आनंद का कारण है। सर्वप्रथम करके तत्त्व ज्ञान के द्वारा यह यत्न करें कि हमारी कम से कम इच्छा हों और जो इच्छायें चलती हों उन्हें भी अपना अपराध मानें। उन्हें भी दूर करने का चित्त में भाव रक्खें। सद्बुद्धि का पहरा अपने आत्मा के चारों ओर बना रहना चाहिए। तब यह आत्मा सुरक्षित रहेगा। सद्बुद्धि न रहेगी तो अनेक व्यसन, अनेक पाप, अनेक खोटी वासनाएँ इसके हृदय में घर करेंगी। फिर इसमें मन, वचन, काय सब विडंबनाओं से लगी हुई प्रवृत्ति होगी। उसमें क्लेश रहेगा अपने आपको संभालें, अपनी ओर दृष्टि दें और अपने को ज्ञानानंदमय देखकर प्रसन्न रहें तो इस शुद्ध वृत्ति से कर्मों का संवर होता है और पहिले के बंधे हुए कर्मों की भी निर्जरा हो जाती है। कर्मों का बोझ हटे इसमें ही अपना कल्याण है।