वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2021
From जैनकोष
इतरोऽपि नर: षडि्भ: प्रमाणैर्वस्तुसंचयम् ।
परिच्छिंदंमत: कैश्चित्सर्वज्ञ: सोऽपि नेष्यते ।।2021।।
अनेक प्रमाणों और युक्तियों से ज्ञानसंग्रह करके सर्वज्ञता की अनुत्पत्ति―कुछ लोग अनेक विद्यावों का माध्यम करके अपनी युक्तियों में ही विश्वास रखते हुए सर्वज्ञ के संबंध में ऐसी कल्पना करते हैं कि कहीं केवल अपने ज्ञानस्वभाव से ही बिना कोई विचार किये, बिना कोई तर्क उठाये समस्त विश्व को जान ले यह बात तो संभव नहीं है । उनका मंतव्य है कि सर्वज्ञ यों नहीं जनता, किंतु जितने प्रमाण हैं, जितने ज्ञान के उपाय हैं, जितने ज्ञान के प्रकार हैं―प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति आदिक सभी प्रमाणों से सभी युक्तियों से ज्ञान का अर्जन कर करके सर्वज्ञ बन जाते हैं । पर सोचिये तो सही कि विश्व के इतने पदार्थ उनको प्रत्यक्ष से, अनुमान से या किसी भी प्रकार से जान-जानकर कोई कब स्पष्ट समझ सकेगा? तथ्य तो यह है कि ज्ञान को ज्ञान स्वरूप में लेने के परम निर्णय व पुरुषार्थ से परम प्रतपन में ऐसा एक प्रभाव होता है कि उसका आवरण ध्वस्त होता है और संपूर्ण ज्ञान एक साथ प्रकट हो जाता है । ज्ञान का अर्जन कर करके कोई सर्वज्ञ बन जाय यह बात संभव नहीं है । लिख पढ़कर, याद करके, विद्या सीखकर अनेक तर्क बना कर के सर्वज्ञ बनाना, यह बात बन ही नहीं सकती है । जो सर्व तर्क वितर्कों को छोड़कर अपने आपके ज्ञानस्वरूप में केंद्रित हो जाय तो सबका ज्ञानार्जन छोड़कर अपने आपके स्वरूप में रत होने से वह सर्वज्ञ बनता है ।
विकल्पप्रसार रोककर अपने कैवल्यस्वरूप में उपयोग के नियंत्रण से सर्वज्ञता की सिद्धि―सर्वज्ञ होने का मार्ग यही है कि हम फैले हुए यहाँ वहाँ के विज्ञानों को छोड़कर अपने आप में समा जाये । जैसे कोई पुरुष यहाँ से विलायत गया । बहुत दिन हो गए । जब वह अपने घर आना चाहता है तो जिस विदेश से रवाना हुआ वहाँ कोई पूछता है कि भाई कहाँ जावोगे? तो वह कहता है भारत देश जायेंगे, हिंदुस्तान जायेंगे । जब हिंदुस्तान के किसी बंदरगाह पर आया मानो बंबई आता है और कोई पूछता है कि भाई कहाँ जावोगे? तो वह कहता है कि उत्तर प्रदेश जायेंगे । जब उत्तर प्रदेश की सीमा में पहुंचा और किसीने पूछा कि कहाँ जावोगे? तो वह कहता है कि सहारनपुर जायेंगे । जब वह सहारनपुर स्टेशन पर आ गया तो रिक्शा वालों ने पूछा कि कहाँ जावोगे? तो वह कहता है कि अमुक मुहल्ला जायेंगे । यों वह अपने घर पहुंचकर अपने विश्राम के कमरे में आकर विश्राम करता है । यों ही हम आपका यह उपयोग अपने निजी गृह को छोड़कर बहुत दूर चला गया है पुद्गलों में, मित्रों में, जड़ पदार्थों में, वहाँ से कहाँ गया? अपने चेतन अचेतन में, परिवारजनों में । वहाँ से कहाँ जायगा? अपने आपमें । अपने ही निकट जायगा । पर इसमें तो अभी बहुत पर भरे हैं रागद्वेष मोह आदिक के । अब कहाँ जायगा? अपने आपके ध्रुव निजी गृह में । वहाँ जाकर आराम का स्थान मिलेगा, वहीं रम जाय तो वह परमशांति पायगा ।
बाह्य ज्ञानार्जन में क्षोभकारणता की संभवता―इन परपदार्थों का ज्ञानार्जन करते रहने से भी इसको क्या सिद्धि होगी? कदाचित् कुछ परिचित लोग मान लें कि ये बड़े वैज्ञानिक हैं, बड़े चतुर हैं, समझदार हैं, तो इतना कहकर वे तो अपना कर्तव्य पूरा कर गए, पर इन बातों को सुनकर वह मोह में जकड़ कर उनके लिए और कदम बढ़ाता है । उन सबको खुश करने के लिए वह रात दिन बेचैन रहता है । प्रशंसा करने वाले तो अपनी चक्की चलाकर चले गए पर पिसना पड़ा खुद अकेले को, और दोष कहने वाला क्या छुड़ा ले गया? बल्कि वह तो बड़ा उपकारी है, क्योंकि हमें सतर्क कर गया । तो इन बाहरी बातों में क्या फंसना है? एक अपने आपके ज्ञानाद्वैत में संगत हो जाय तो सर्वज्ञता प्रकट होगी । प्रमाणों से ज्ञान जोड़-जोड़ करके सर्वज्ञ नहीं हुआ जा सकता ।