वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2019-2020
From जैनकोष
जंममृत्युजराक्रांतं रागादिविषमूर्च्छितम् ।
सर्वसाधारणैर्दोषैरष्टादशभिरावृतम ।।2019।।
अनेकव्यसनोच्छिष्टं संयमज्ञानविच्युतम् ।
संज्ञामात्रेण केचिच्च सर्वज्ञं प्रतिपेदिरे ।।2020।।
निर्दोष प्रभु की उपासना में कल्याण―प्रभु जन्म जरा मरण से रहित होते हैं, किंतु कोई मोहीजन जिनके चारित्र में जन्म की बात बतायी हो, मरण और बुढ़ापे की बात बतायी हो, फिर भी उन्हें देव अथवा भगवान के रूप में पूजा करते हैं । भला जन्म जरा मरण ही तो सबसे बड़ा दोष है । इन तीनों बातों को ज्ञानीजन उपादेय नहीं समझते हैं । मोही जन जन्म में खुशी मानते हैं, बुढ़ापा और मरण को वे भी अच्छा नहीं समझते, लेकिन ये दोनों दोष महादोष हैं । हम आप आत्मा हैं, ज्ञानानंदस्वरूपमय हैं, सबसे निराले हैं, कोई कष्ट है क्या? किसी को भी कष्ट नहीं है । सभी कष्ट से बरी हैं, लेकिन कष्ट पसंद करते हैं और सहते रहते हैं । रागद्वेष आदिक परिणाम करना, उनको अपनाना इसकी आवश्यकता है क्या जीवों को? और कदाचित् किसी प्रसंग में रहना भी पड़ रहा है संसर्ग में, पर भीतर तो ऐसी श्रद्धा बना लें कि मैं सबसे निराला हूँ, लो यह मैं ज्ञानानंदमात्र हूँ तो इसमें कोई जबरदस्ती करता है क्या कि तुम ऐसा विश्वास न रखो । ये खुद ही अपने सही विश्वास से गिर गये और व्यर्थ के इन बाह्यपदार्थों में लग गये, इनमें आसक्त हो गये । लो अब जन्ममरण कर रहे हैं, दुःखी हो रहे हैं । तो जिन बातों से हम विडंबनायें पाते हैं अथवा जन्म जरा मरण से दबे हुए हैं उन्हीं बातों में दबे हुए पुरुषों को कोई भगवान मानें, प्रभु माने तो क्या उनके संकट दूर होंगे? न दूर होंगे ।
प्रभुभक्ति का प्रयोजन―अहो, उन मोही जनों ने यह निर्णय ही नहीं किया कि प्रभुभक्ति करके हमें चाहिए क्या? सही निर्णय नहीं किया । बस धन, वैभव, स्त्री, पुत्रादिक की बात चाही, मुकदमा की जीत चाही, जिन सांसारिक कार्यों को इष्ट मान रखा है उनकी सिद्धि चाही । जो स्वयं दुःखी हैं उन्होंने अपने लिए दुःख मांगा । जो जन्म जरा मरण से दबे हुए हैं ऐसे पुरुषों को मोहियों ने अपना प्रभु माना, देव माना । उनसे दु:ख की चाह की है । तो सही है बात । उनके मनोरथ अवश्य सिद्ध होंगे । उन्होंने दुःख माँगा है तो दुःख मिलते जायेंगे । वे अपनी कल्पना में तो नहीं समझते दुःख, परंतु वास्तव में वे सांसारिक समस्त समागम दुःखरूप हे, सो जन्म जरा मरण से व्याप्त प्रभु से कुछ सिद्धि नहीं है । जन्म में इस जीव के दुःख को उस ही भांति से कहा है जितना कि मरण में कहा है । जैसे मरते समय इस जीव को वेदना होती है, शरीर से कुछ खिंचा हुआ सा होता है, इसी प्रकार जन्म के समय में भी किस प्रकार से संकुचित होता है, किस ढंग से पेट के अंदर रहता है? वह कष्ट वहाँ भी है, और जन्म तो कहलाता है तब जब शरीर धारण किया, गर्भ में आया । अब गर्भ से निकलते समय के कष्ट देखिये, गर्भ में रहने के कष्ट देखिये, किस तरह से गोल बनकर नीचे मुख रखकर और हाथ पैर सब संकुचित होकर लिपटा हुआ-सा रहता है । वहाँ बाहर की हवा भी नहीं मिलती है । यों गर्भ में कितने कष्ट हैं?
संकटमोचन उपाय―देखिये संसार के संकट सदा के लिए मिट जायें इसका उपाय बड़ा सुगम है । इतना स्वाधीन है कि आप अपने ही अंदर सच्चा प्रकाश पाये और मान जायें कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र हैं, एक दूसरे से अत्यंत जुदे हैं । किसी का किसी से संबंध नहीं है, मैं स्वयं ज्ञानानंदरूप हूँ, अपने आपको ऐसा मान जायें तो इसमें क्या कष्ट हो रहा है? कोई भी तो कष्ट नहीं है, आनंद ही आनंद है । यदि यह कहो कि हम तो गृहस्थी में हैं, सारी बातें ख्याल में रखनी पड़ती हैं, सब सम्हालना है, आजीविका है, समाज में रहना है, देश में रहना है, ये सब बातें हैं । अरे जो सत्य श्रद्धान से उन सब बातों में कुछ विरोध आता है क्या? वे भी बातें रहेंगी और कदाचित् विकल्प उनसे हट जाय और उनकी चिंता तनिक भी न रहे और आत्मस्वरूप में मग्न होने की बात बन जाय तो यह तो सर्वोत्तम बात है । न भी आत्ममग्नता बन सके तो भी अपने आपकी सही श्रद्धा में निराकुलता तो अंत: रहती है ।
निर्दोष प्रभुभक्ति में स्वत: समृद्धिलाभ―प्रभु वह है जो जन्म जरा मरण से परे है और जन्म जरा मरण से परे होने से ही उनका कल्याण है । मेरा भी कल्याण जन्म जरा मरण से परे होने में है, यह श्रद्धा ज्ञानी उपासक संत के रहती है । विषयव्यामुग्ध जन मोहवश जन्म जरा मरण से आक्रांत पुरुष को भी प्रभु मानते हैं । किंतु सोचिये तो सही जिसके रागादिक विष की प्रीति है, जो स्त्री पुत्रों में राग करे, भोगने की कामना करे और अनेक प्रकार की घटनाओं में भी अपना दिल लगाये, ऐसे रागादिक विष से मूर्छित स्वरूप क्या प्रभु का हो सकता है? कदापि नहीं । प्रभु तो राग से परे हैं । प्रभु की जो भक्ति करता है वह स्वयं अपने आप संपन्न बन जाता है । प्रभु उसे संपन्न बनाने नहीं आते जो प्रभु से विमुख रहता है वह स्वयं ही अपने आप क्लेश पाता है । प्रभु तो परम उपेक्षक हैं, अपने विशुद्ध ज्ञानानंदरस में लीन हैं । जीवों की आदत कुछ स्नेह करने की पड़ी हुई है तो स्नेह करें प्रभु से । मगर राग की प्रकृति नहीं छूट रही है, तो हम राग का प्रयोग करें उस प्रभुस्वरूप पर, उसके अनुरागी बने । जैसे यहाँ लोग बाह्य वचन बोलकर अनुराग दिखाते यों नहीं, पर प्रभुस्वरूप से अंत: वचन बोलकर उसमें अनुराग बनायें वहीं कुछ अपने आपको मिलेगा । तो प्रभु रागादिक विष से अत्यंत दूर हैं । मोही पुरुष तो ऐसे चारित्र वालों को जिनके राग की प्रकट वेदना नजर आती है उन्हें भगवान मानते हैं, पर जो अपने आपको संसार संकटों से छूटने का लक्ष्य बनाने मे है वे तो रागादिक से रहित ही प्रभु हैं, ऐसी अपनी दृढ़ प्रतीति रखते हैं ।
मोहियों की उपासना विडंबना―देख लो भैया! संसारी जीव जन्म जरा मरण आदिक 18 दोषों से लिपटे हैं―सुधा, तृषा, विस्मय, अरति, खेद, रोग, शोक, अभिमान, मोह, चिंता आदिक अनेक दोष हैं जिन दोषों से ये संसारी जीव आक्रांत हैं । और कोई मोही जन ऐसे ही दोष वाले को अपना देव मानें, आदर्श मानें तो वे अपना उत्थान कैसे कर सकते हैं? अरे जो स्वयं इन दोषों से व्याकुल है उसकी भक्ति से सिद्धि क्या प्राप्त होगी? जिन रागमय चिंतावों से हम परेशान हैं उन ही घटनाओं में, उन ही चर्चावों में जो चल रहा हो, बस रहा हो उसे देव मानकर, भगवान मानकर, उसकी भक्ति करने से क्या लाभ? मोही अज्ञानी जीव ही इस पकार के कलुषित पुरुष की भक्ति में लग सकते हैं । मोहियों की तो बात क्या करें―किसी पत्थर का, किसी पेड़ का, किसी भी बिरादरी के साधारण गृहस्थ का अथवा कोई पागल भी फिर रहा हो तो उस तक का भी शरण मान लेते हैं । कितनी ही जगह लोग पागल का भी बड़ा सम्मान करते हैं और यह प्रतीक्षा करते हैं कि यह मुझे कुछ गाली दे दे, कुछ एक आध बात कह दे तो इससे हमारे कार्य की सिद्धि होगी । कुछ लोग तो यहाँ तक अपना मंतव्य बनाये रहते हैं । ये सब मोहियो की चेष्टायें हैं ।
विशुद्ध मुमुक्षु का आदर्श―जिन्हें सांसारिक समस्त संकटों से छूटने की अभिलाषा है वे पुरुष उस आदर्श प्रभु की खोज करते हैं । उनके चित्त में यह बात रहती है कि अपना यह मस्तिष्क नारियल की तरह किसी भी जगह फोड़ दिया जाय अर्थात् मस्तिष्क झुका दिया जाय यह कोई विवेक की बात नहीं है । कौन मेरे लिए आदर्श है? देव कहो, भगवान कहो या आदर्श कहो, एक ही बात है । मुझे क्या बनना है, मैं क्या होना चाहता हूँ, मैं क्या अनुभवना चाहता हूँ इस प्रश्न के उत्तर में जिस पर अंगुली उठ जाय कि मैं यह बनना चाहता हूँ, उसी का नाम देव है । तो प्रभु क्षुधा आदिक अठारह दोषों से रहित हैं, अनेक विपदावों से दूर हैं, भले ही मोही जन ऐसे चारित्र वाले पुरुषों को अपना आदर्श मानकर उनके प्रति भक्ति प्रदर्शित करें पर ज्ञानी पुरुष ऐसे चारित्र वालों के प्रति अपनी भक्ति नहीं प्रदर्शित करते हैं । वे तो ऐसे प्रभु के प्रति श्रद्धा से अपना शीश झुकाते हैं जो इन समस्त दोषों से रहित हैं, जो सर्व आपदावों से रहित हैं, समतापरिणाम के धारी हैं, जो पूर्ण संयमरूप हैं, जिनमें अब कोई व्यसन आपत्ति आ ही नहीं सकती, ऐसे प्रभु के वे ज्ञानी ध्यानी भक्तजन परम उपासक हैं । प्रभु के तो अब परम संयम और परम ज्ञान हैं । संयम क्या है? उनका आत्मा, उनका उपयोग उनमें ऐसा संयत हो गया है कि जो अब अनंतकाल तक भी अपने आपके स्वरूप से हट नहीं सकता है । वे सदा के लिए सुखी हैं ।
अशुद्ध दशा की विपदा―अशुद्धता ही विपदा है और शुद्धता ही परमवैभव है । अपने आपके बारे में विचार करें, हम किस बात पर इतरायें, किस बात पर घमंड करें, किस बात पर अपना बड़प्पन मानें । जब हम अशुद्ध बनते हैं तो हम अपने स्वरूप में रम नहीं सकते और परपदार्थों के प्रति हमारा आकर्षण होने लगता है । किसी से भी स्नेह अथवा द्वेष करके हम आप अपने आपको गंदा बना लेते हैं । ऐसी गंदगी में रहने वाले हम आप किस बात पर अपना बड़प्पन माने? एक अपने आपके आनंदस्वरूप पर दृष्टि डालिये तो एक ऐसा साहस होता है कि नहीं, कायर बनने की आवश्यकता नहीं । मैं स्वरूपत: केवल ज्ञानानंदमात्र हूँ । यह शरीर ऊपर लदा है, ये रागादिक विकार भी मेरे ज्ञानस्वभाव के ऊपर आ आकर जुड़ जाया करते हैं । हम उस समय में विचलित हो जाते हैं तो संसार में परिभ्रमण करते हैं, और जब हम अपने स्वभाव की सुधि लेते हैं तो एक साहस जगता है और अंदर में आवाज उठती है―जो मैं हूँ वह हैं भगवान । कितना इन ज्ञानी पुरुषों का अपने विचारों में हितकारी परिवर्तन चल रहा है? पर्याय पर दृष्टि करते हैं तो इस अशुद्धता पर उन्हें विषाद होता है, कदाचित् परदृष्टि करते हैं तो उस पर भी वे पछतावा करते हैं । वे ज्ञानी ध्यानी पुरुष तो मुक्त होने का सुगम उपाय जानकर, स्वयं अपने को आनंदमय मानकर अपने आप में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं ।
संसारपाराभिलाषी के संसारपारग की अनुकरणीयता―संसार से पार होने की अंतर्वृत्ति रखने वाले ज्ञानी पुरुषों को प्रभु के संयम और ज्ञान की पराकाष्ठा ईश्वर रूप में दिखती है । जो किसी नदी को पार कर के किनारे पहुंच जाता है उसी को यह अधिकार है कि दूसरे किनारे खड़े होने पर दूसरों से कहे कि देखो इस रास्ते से आवो, इसमें कोई खतरा नहीं है, और कोई किसी लहरों में डूब रहे पुरुष को अपना हितू मानकर उसको ही आदर्श मानकर उसके निकट जाय तो वह तो डूबेगा । हमें संयत बनना है, अपने आप में गुप्त बनना है, निर्विकल्प होना है, ज्ञानानुभव करना है तो हम को ही इस दिशा में प्रगति करना है, तो प्रभु भी तो इस प्रकार का ही निरखेंगे । तो प्रभु संयम और ज्ञान की पराकाष्ठारूप हैं । मोही जन ज्ञान से रहित, सर्व दोषों से पूर्ण व्यक्ति को भी प्रभु मानकर उसकी भक्ति करते हैं । अरे जिसका जैसा उपादान है उसका वैसा ही परिणमन है । कहीं परमात्मा मान लेने से वे परमात्मा बन गये हों, यह बात नहीं है । तो प्रभु सर्व दोषों से रहित और गुणों के उत्कृष्ट विकासरूप होते हैं ।