वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2033
From जैनकोष
दिव्यपुष्पानकाशोकराजितं रागवर्जितम् ।
प्रातिहार्यमहालक्ष्मीलक्षितं परमेश्वरम् ।।2033।।
प्रभु के निकट दिव्यपुष्पवर्षा व दुंदुभिनाद का अभिचार―सर्व संकल्प विकल्परूपी संकटो से मुक्त हुआ परमात्मा कहाँ विराजमान रहता है, किस प्रकार रहता है? उसका कुछ वर्णन इस प्रसंग में चल रहा है । ये भगवान कुछ ऊपर आकाश में विराजमान रहते हैं, जहाँ देवेंद्रों के द्वारा बड़ी भारी शोभा बनायी जाती है और वहाँ दिव्य पुष्पों की वर्षा देव लोग किया करते हैं । फूलों को जो लोग बरसाते हैं तो किस तरह बरसाते हैं? फूल के ऊपर जो बंधन होता है जिसमें फूल लगता है, वह फूल बरसाते समय पहिले तो ऊपर रहता है, फूल नीचे रहता है, किंतु ऊपर से नीचे आने तक वह फूल का बंधन नीचे हो जाता और फूल का विकास ऊपर हो जाता । तो यह फूल जब भगवान के चरणों के निकट गिरा तो फूल के बंधन नीचे हो गए । ये गिरते हुए फूल लोगों को यह शिक्षा दे रहे हैं कि जो भगवान के चरणों के निकट आयगा उसके बंधन नीचे हो जायेंगे, शिथिल हो जायेंगे, टूट जायेंगे । ऐसी शिक्षा देते हुए फूल जहाँ बरस रहे हैं ऐसे प्रभु के स्थान पर समय-समय पर दुंदुभि की ध्वनि निकलती है । ढोल से भी बहुत बड़ी ध्वनि वाली वह दुंदुभि है जिसमें बड़ी गंभीर ध्वनि निकलती है । जैसे कि कहीं-कहीं मंदिर के दरवाजे पर नगाड़े रखे होते हैं, उन नगाड़ों की ध्वनि से भी अधिक व्यापक व गंभीर ध्वनि उन दुंदुभियों की होती है । तो वे दुंदुभि बजकर लोगों को यह संबोध रही हैं कि अरे संसार के दुःखी प्राणियों ! तुम कहाँ भटक रहे हो? समस्त संक्लेश जहाँ दूर हो सकते हैं, जहाँ आत्मा की अनुपम लक्ष्मी प्रकट हो सकती है वे प्रभु जहाँ विराजे हैं वहाँ पर यहाँ आवो, यहाँ आवो-इस प्रकार का संबोधन करते हुए मानो वह दुंदुभि बज रही है ।
दिव्य अशोक तरु के निकट विराजमान वीतराग परमेश्वर का ध्यान―जहाँ पर वे प्रभु विराजे हैं वहाँ बहुत सुंदर अशोक वृक्ष होते हैं । यहाँ ही अशोक वृक्षों के निकट पहुंचते ही उपयोग बदल जाता है, मन बहल जाता है तो फिर जिन अशोक वृक्षों के पास प्रभु विराजे हैं वहाँ की महिमा का तो कहना ही क्या है? जो प्रभु अशोक वृक्षों के निकट विराजे हैं उनके चरणों के निकट जो आयगा वह अशोक बन जायगा । वे प्रभु वीतराग हैं । जैसे बच्चे लोग कहानी सुनाते हैं तो दूसरे बच्चे हूंका देते हैं । उसमें उन हूंका देने वालो के राग सिद्ध होता है, पर वे प्रभु किसी की भी बात नहीं सुनते, किसी से बोलते भी नहीं, इससे उनमें राग नहीं है, वे तो अपने ज्ञानानंद में विराजमान होते हैं । हाँ जो कभी प्रश्न करता है प्रभु की एक दिव्य- ध्वनि सुनकर अपने आप शंका का समाधान पा जाता है, अथवा वहाँ विराजे जो उच्च गणेश हैं, उन गणेशों से वह अपनी शंका का समाधान कर लेता है । प्रभ वीतराग हैं ऐसे प्रतिहार्य महालक्ष्मी से शोभायमान परमेश्वर का वंदन कीजिए । वे परमेश्वर हैं । जिसे लोग अपना रक्षक समझते हैं उसे ही तो ईश्वर मानते हैं । ये प्रभु संसार के सर्वजीवों के रक्षक हैं । यह परमात्मा प्रभु अरहंतदेव परमईश्वर हैं । परम कहते हैं―उत्कृष्ट को । जहाँ उत्कृष्ट लक्ष्मी अर्थात् ज्ञान विराजमान हो उसे परम कहते हैं और जो परम अर्थात् उत्कृष्ट ज्ञान संपन्न आत्मा है उसे परमात्मा कहते हैं । ऐसे उन परमेश्वर का ध्यान करो। यह रूपस्थ ध्यान में ध्यानी अपने लिए चिंतन कर रहा है ।