वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2034
From जैनकोष
नवकेवललब्धिश्रीसंभवं स्वात्मसंभवम् ।
तुर्यध्यानमहावह्नौ हुतकर्मेंधनोत्करम् ।।2034।।
स्वत:सिद्ध, परमश्रीशोभित निष्कलंक प्रभु का ध्यान―प्रभु केवल लब्धियों की श्री की उत्पत्ति के स्रोत हैं । प्रभु का ज्ञान समस्त लोकालोक का जाननहार है और उस समस्त लोकालोक के जाननहार आत्मा को जो झलक में लिए रहते हैं ऐसे प्रभु के निर्मल सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ है, उस सम्यक्त्व का कभी विनाश न होगा । वे प्रभु आत्मा में लीन हो चुके हैं, एक रस निष्काम हो चुके हैं ऐसे वे सदा काल रहेंगे, तभी तो भक्तजनों के वे आदर्श कहलाते हैं । कितना महादान है प्रभु का । जो पुरुष उनका स्मरण करते है उनको सर्व सुख समृद्धियां प्राप्त होती हैं । लाभ भोग उपभोग समस्त उन्हें अपने आप में उत्कृष्ट हैं, ऐसे अनंत शक्तिमान प्रभु है और उन प्रभु से इन सब गुणों की उत्पत्ति हुई है । अच्छा बतावो―कहाँ से उत्पन्न हुए ये प्रभु? अच्छा, यह बतावो कि किसी पाषाण का टुकड़ा है और कारीगर को उसमें से कोई प्रतिमा बनानी है तो कारीगर ने उस प्रतिमा को कहाँ से बनाया है? कौनसी चीज लाकर जोड़ा? कारीगर ने तो उस प्रतिबिंब को ढांकने वाले जो अगल-बगल के पाषाण थे उनको दूर किया । प्रतिबिंब जो वहाँ विराजमान था, प्रकट हो गया । प्रतिबिंब रूप में तो न था विराजमान, पर जो अवयव प्रतिमा के प्रकट हुए हैं थे सब वहाँ थे या नहीं । तो जैसे वह प्रतिबिंब अपने आप में उत्पन्न है इसी प्रकार वह भगवान भी जो निर्दोष चैतन्य के परमविकास हैं, वे अपने आप में उत्पन्न हुए हैं । किसी दूसरे से कुछ आया नहीं है । शुक्लध्यान रूपी महान अग्नि में ये कर्मईंधन भस्म हो जाया करते हैं । एतदर्थ ध्यान क्या था उनके? अपना जो एक विशुद्ध स्वरूप है उस स्वरूप का आश्रय किया था उन्होंने । यह ध्यान था उनका उत्कृष्ट । जहाँ पाप की तो बात क्या, पुण्य की भी जहाँ प्रवृत्ति नहीं है ऐसे परमध्यान के द्वारा उन्होंने कर्मईंधन को जला डाला । ऐसे प्रभु का यह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष ध्यान करता है ।