वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 204
From जैनकोष
धर्मो व्यसनसंपाते पाति विश्वं चराचरम्।
सुखामृतपय: पूरै: प्रीणयत्यखिलं जगत्।।204।।
धर्म की रक्षकता―कष्ट के आने पर इस चराचर विश्व की रक्षा करने में समर्थ एक धर्म ही है। धर्म ही हमारा रक्षक है। इसका कारण यह है कि हमारा अधर्म ही हमें विपत्तियाँ देता है। तो अधर्म का विरोधी है धर्म/अधर्म से विपदायें आती हैं तो धर्म से विपदायें नष्ट होती हैं। वैसे ही मोटे रूप में लोकव्यवहार में देख लो जो पुरुष दूसरों को सताते हैं, दूसरों के विषय में झूठ बोलते हैं, दूसरों की चुगली निंदा करते हैं, दूसरों से मायाचार रखते हैं, छल कपट का बर्ताव रखते हैं, कुशील बुरी निगाह करते हैं और जैसे आये वैसे परिग्रह के संचय की धुन बनाते हैं उस व्यवहार में प्राय: अन्य लोगों के द्वारा विपदायें आती रहती हैं। हम सताते हैं दूसरों को तो कोई कमजोर हो, भले ही वह हमें कोर्इ बदला न दे सके और कभी-कभी तो कमजोर भी बड़ा बदला दे डालते है। यदि किसी समर्थ से पाला पड़ गया तो वह तो इसकी मनमानी मरम्मत कर देगा। अधर्म का बर्ताव रखे तो यहाँ ही उपद्रव पडौसियों के द्वारा आता है। जो झूठा होता है, जिसमें चोरी की आदत पडी है, जो व्यभिचारी होता है उसे कोई लोग पास नहीं बैठने देते। लोग उसे बुरी दृष्टि से देखते हैं। तो विपदायें बुरे लोगों पर अधर्मीजनों पर आती हैं यह तो यही नजर आता है। किंतु जो लोग धर्म पूर्वक अपना व्यवहार रखते हैं, सच्चाई से रहना, दूसरे का चित्त न दु:खाना, अपनी दृष्टि सही बनाना, ब्रह्मचर्य की साधना रखना, ऐसे सत् आचरणों में जिनका वातावरण पलता है उनका सब लोग आदर करते हैं।
धर्म की आनंदप्रदायकता―यह बात बिल्कुल सही है कि धर्म जीव को कष्ट से अलग रखता है, वह कष्ट से अलग रखे इतना ही नहीं, किंतु आनंदरूपी अमृत के जलप्रवाह से यह धर्म समस्त जगत को तृप्त करता है। धर्म की स्थिति में सबका रूप ही इस प्रकार बन जाता है कि वहाँ सत्य आनंद झरता है। जहाँ क्रोध, मान, माया, किसी भी परद्रव्य की चाह नहीं है, ममत्व नहीं है ऐसी विशुद्ध स्थिति हो तो वहाँ क्लेश का क्या काम है। आनंदरूपी अमृत का प्रवाह झरता है वहाँ जहाँ यथार्थता से प्रेम हो। प्रवाह से समस्त जगत को तृप्त भी बनाये रहता है। जगत के प्राणी यत्र तत्र जलते रहते हैं उसका कारण है कि ये अतृप्त हैं, तृप्त हों तो क्यों भ्रमण करें, क्यों नये-नये जन्म धारण करें? यह जीव तृप्त नहीं है और अतृप्ति का कारण है जीव को पंचेंद्रिय के विषयों में और मन के विषयों में प्रीति जगी है, और इन विषयों के प्रेम से यह जीव अतृप्त है। यह अतृप्ति कब मिटे? जब विषयों की प्रीति न रहे और खुद ही जो प्रभुस्वरूप है उसकी भक्ति जगे तो यह अतृप्ति दूर होगी, असंतोष दूर होगा और संतोष प्रकट होगा।
महान् कार्य―सबसे बड़ा काम है अपने को धर्मरूप बनाये रहना। अधर्म करके मानो कुछ वैभव भी आ रहा हो, प्रथम तो वैभव अधर्म से आता नहीं, इसके ही पूर्व धर्म से जो पुण्य बना, उसके प्रताप से वैभव आता मान लो वैभव आ रहा है और उस काल में भी अधर्म का बर्ताव करे तो यों कहा जाता कि अन्याय से पैसा कमा लिया। यों अधर्म करके कभी वैभव भी आये तो नफे की बात न समझिये। वह वैभव भी खत्म होगा और पाप करने के फल में कभी कुछ देर लग जाय तो भले ही लग जाय, पर यह अंधेर नहीं है कि पाप का फल न मिले। कर्म संचित होते रहते हैं और कभी एकदम बुरी प्रकार से फूट निकलते हैं।
अध्यात्मपुरुषार्थ का अनुरोध―धर्म ही जीव को कष्ट से बचाता है और धर्म ही जीव को आनंद में बसाकर तृप्त बनाये रहता है यह अपने एक ज्ञान के प्रयोग द्वारा साध्य है। यहीं बैठे ही बैठे आप लोग बाहर का सब ध्यान भूलकर जब संसार में हमें अकेले ही जन्म–मरण करना पड़ता है, सुख-दु:ख भोगना पड़ता है उसका अन्य कोई साथी नहीं है, तब बाह्य की क्यों भीख माँगे, यों विवेक करके जब अंतर में थोड़ी देर के लिए ख्याल ही भूला दें समस्त पर का व एक अपना ही ध्यान लगायें और देह से न्यारा अपने आपको विचारें, ऐसा विविक्त सबसे जुदा ज्ञानपुंजरूप अपने आपको सोचें तो इस अध्यात्म पुरुषार्थ में आनंद अपने आप झर जायेगा।
पर से सुख मानने का भ्रम―जिन विषयों से पर्यायबुद्धि जीव सुख माना करते हैं वे विषय इस आनंद में बाधा देने वाले हैं, पर मोही को इस मर्म का क्या पता? आत्मा स्वयं आनंदस्वरूप है, पर अपने को न आनंदस्वरूप मानकर यह व्यामोही प्राणी किन्हीं बाह्य पदार्थों से विषयों से मुझे आनंद मिला ऐसी दृष्टि बनाता है और इस दृष्टि में यह अपने आनंद को खो देता है। जब कभी विषयों को भोगते हुए भी सुख मालूम हो रहा हो तो वहाँ भी कहीं भोजन से, घर से, वैभव से, स्त्री से, मित्र से सुख नहीं आता है, वहाँ भी अपने में बसा हुआ जो आनंद गुण है उस आनंद से सुख आया करता है किंतु मोही जीव को इस मर्म का पता नहीं है, सो वह भोगता तो है अपने ही आनंद का सुख, किंतु मान रहा है कि मुझे दूसरे जीव से अथवा अमुक पदार्थ से सुख मिला है। कभी किसी पदार्थ से सुख निकलता हुआ किसी ने देखा है अथवा किसी जीव का सुख उस जीव से निकलकर मुझमें आये, ऐसा कभी देखा है? प्रत्येक परिस्थितियों में जब कभी भी हम सुखी होंगे तो अपने ही आनंद के परिणमन से सुखी हुआ करते हैं।
धर्म का प्रारंभिक पालन व कषायों का परिहार―मैं जीव हूँ, मेरा स्वरूप ज्ञान है, आनंद है। यों अपने ज्ञान और आनंद स्वरूप की दृष्टि बने, यही प्रारंभिक धर्म का पालन है। धर्म के निर्णय के लिए यहाँ दृष्टि न फँसायें। अपना स्वरूप तो धर्म है। अधर्म की बात छोड़ी कि धर्म का आनंद स्वयमेव आ जाता है। जैसे आप गुस्सा छोड़ दें तो क्षमा अपने आप आ जायेगी। गुस्से से जो कष्ट हुआ था वह कष्ट नष्ट होकर आनंद अपने आप आ जायेगा। घमंड कर करके जो कष्ट उठाया जाता है वह उस घमंड को छोड़ दे कष्ट अपने आप समाप्त हो जायेगा। मायाचार करके यह जीव कितना दु:खी रहा करता है, निरंतर शल्यवान रहा करता है। मेरे मायाचार का किसी को पता न पड़ जाये, ऐसी बात वह मन में रखता है उसको छिपाने की शल्य बनी रहती है। क्रोध करता है कोई तो क्रोध को छिपाने की बात कौन विचारता है? जाहिर हो जाये तो हो जाये। यदि क्रोध को छिपाने की भी कोई मन में सोचता है तो वह क्रोध की बात नहीं हुई मायाचार की बात हुई। तो मायाचार अंत: शल्य पैदा करता है। जैसे देह में कहीं कांटा चुभ जाय तो वह कांटा ही एक शल्य पैदा करता है। इसी तरह मायाचार का परिणाम अपने अंत: में चुभन पैदा करता है। मायाचार को छोड़ें और स्वयं अनुभव करे कि देखो हमको कितनी शांति मिली है? लोभ भी क्लेशों का मूल है, उसे छोड़कर अनुभव कर लो कितनी शांति मिली है?
तृष्णा के परिहार में धर्म का अवकाश―लोभ का रंग भी बड़ा विचित्र है। कितना भी कुछ जुड़ता जाय पर यह लोभी जीव मना नहीं करता। इसके लोभ लगा रहता है। जो आज है आपके पास कभी इसका चौथाई भी न था ऐसा परिस्थिति वाले लोग हैं, किंतु चतुर्गुणा आ जाने पर भी चित्त में यह संतोष भी नहीं कर पाते कि इससे अधिक मुझे कुछ न चाहिए और प्रथम तो यह बात है कि सभी के पास जिसके पास जो कुछ है वह जरूरत से कई गुना अधिक है। लोग तो यह कहते हैं कि हमारी जरूरत पूरी ही नहीं हो पाती, बहुत कम धन है और बात यह हे कि सबके पास इतना अधिक धन है कि वह उनको जरूरत से ज्यादा है। इसका प्रमाण यह है कि आपसे भी कम जिनके पास वैभव है उन पर निगाह डालो( उनका भी गुजारा हो रहा है या नहीं। तब यह निर्णय अपना बना लो कि हमें जो मिला है। वह जरूरत से कई गुना अधिक मिला है। अज्ञानी जन उद्दंडतावश अपनी जरूरतें बढ़ाते हैं और अपने को कष्ट में रखते हैं। सीधा-सादा रहन-सहन भोजन, सीधा बर्ताव हो और वैभव फिर जितना अधिक आये उसका सदुपयोग करें, परोपकार में लगायें तो इस वृत्ति से बड़ी शांति मिलेगी।
उदारता से ख्याति―लोग धन जोड़कर यही तो चाहते हैं कि इस दुनिया में मेरा नाम बड़ा हो। तो क्योंजी कोई यदि धन का त्याग करे, दान करे कोई बड़ी चीज पब्लिक के कल्याण के लिए बनाये तो क्या उसका नाम बड़ा नहीं होता? धन को जोड़ते रहने का नाम बड़ा होना है या उदारता का नाम बड़ा होना है? यह मन में बात न लायें कि मेरे पास धन अधिक है तो मैं आराम बढ़ाऊँ, बहुत वाहन रखूँ, बहुत साज श्रृंगार करूँ, बहुत नखरे नाज करूँ, ऐसी बात मन में न लायें। कितना भी वैभव हो अपनी सादगी न छोड़ें। वैभव का सदुपयोग दान में और परोपकार में तो करें पर अपने आराम, साजश्रृंगार में न करें। इस सादगी से अनेक फायदे हैं। कभी वैभव न रहे तो यह दु:खी नहीं हो सकता क्योंकि इसकी सादगी से रहने की आदत है। कभी कोई साधन न मिला आराम का, साज-श्रृंगार का तो यह दु:खी नहीं हो सकता। फिर लौकिक लाभ तो जो यश का है वह तो इसका कृपण से अधिक यश है। कृपण का कहाँ यश होता है? जो अपने विषयों से संबंध नहीं रखते ऐसे कार्यों में कोई अपना धन व्यय करे तो वह उदारता है। उदारता बिना यह त्याग नहीं हो सकता। तो लोभ से कितनी पीड़ायें उत्पन्न होती हैं, लोभ तज दो और उसी समय अनुभव करो कि हमें कितना आनंद मिला है, हमारे क्लेश का कितना बोझ हट गया है?
धर्म से संकटों का विनाश―भैया ! कषायों का अभाव हो अर्थात् धर्म का पालन हो तो उससे समस्त संकट दूर हो जाते हैं और धर्म का आनंद ही स्वरूप है। ऐसे आनंद के प्रवेश में यह धर्म धर्मात्मा को सुखी कर देता है। हम अच्छा आचरण करें, बुरे आचरण से दूर रहें, अपने आप पर अपनी जिम्मेदारी समझकर, मैं ही अपना जिम्मेदार हूँ ऐसा मानकर जिस प्रकार से अपनी सुगति बने, शांति मिले उस प्रकार का बर्ताव रखना चाहिए अर्थात् धर्म का अपना वातावरण रखना चाहिए जिससे अशांति दूर हो।