वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 205
From जैनकोष
पर्जन्यप वनार्केंदुघरांबुधिपुरंदरा:।
अमी विश्वोपकारेषुवर्तंते धर्मरक्षिता:।।205।।
धर्मरक्षितों की विविध वस्तुओं से रक्षा―कभी किसी चीज से अपनी रक्षा हो रही है ऐसा मालूम पड़े तो वहाँ भी वह अर्थ लगाना की हमारी धर्म से रक्षा हो रही है। क्योंकि धर्म न हो, पुण्य न हो तो बाहर में भी हमें रक्षा का साधन न मिलेगा। मेरे अथवा समस्त जगत के उपकार के लिए जो मेघ, पवन, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, समुद्र इत्यादिक जो-जो भी हमारे उपकार के लिए प्रवृत्ति कर रहे हैं तो वे सब भी समझिये धर्म द्वारा रक्षा किए हुए ही प्रवर्तते हैं अर्थात् अपने पल्ले धर्म न हो तो यहाँ कभी भी अपना उपकार नहीं हो सकता।
मेघ द्वारा उपकार―देखो मेघों का कितना बड़ा उपकार है? मेघ समय पर बरसे तो उससे अनाज तो उत्पन्न होता ही है, पर साथ ही साथ शुद्ध ऋतु शुद्ध वायु का भी लाभ होता है। ठंड के दिनों तक में भी यदि पानी कभी न बरसे तो उसे सुखी ठंड कहते हैं और उससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। मेघ से अन्न उत्पन्न होता है जगत के प्राणी उसका उपभोग करते हैं। जगत सुखी होता है तो ये मेघ भी कब काम देते हैं जब जीवों के पुण्य का उदय हो। पुण्य अथवा धर्म न हो जीवों के तो मेघादिक भी उपकारी नहीं बन पाते। कोई उपकारी बन रहा हो तो वहाँ भी यह निर्णय रखना कि हमारे धर्म के कारण, हमारे पुण्य के कारण यह उपकारी बन रहा है।
वायु द्वारा उपकार―हवा का कितना अधिक उपकार है? हवा बिना तो आग भी जिंदा नहीं रहती। कोई खुली चिमनी का लैंप है उसके ऊपर ढक्कन ढक दो तो वह बुझ जायगा। अग्नि भी हवा पाकर जीवित रहती है। हवा को पाकर वनस्पति, जल, पृथ्वी सभी सही रूप में रहते हैं, और हवा से हवा भी जीवित रहती है। हम आप लोगों को भी बहुत निकट उपकारी हवा है। जैसे कहते हैं कि अन्न तीन चार दिन भी न मिले तो कुछ भी बिगाड़ न होगा और पानी अन्न की अपेक्षा कुछ जल्दी मिलना चाहिए और हवा पानी की अपेक्षा भी बहुत जल्दी-जल्दी मिलनी चाहिए। जैसे मान लो 5 दिन तक न खाया जाय तो भी मनुष्य जीवित रह सकता है जो जल बिना 1-2 दिन ही मुश्किल से निकल सकते हैं और हवा बिना तो दो एक घंटा भी निकलना कठिन है। तो समझिये हवा का हम आप पर कितना उपकार है, लेकिन हवा का लाभ मिलना उपकार होना यह भी हम आपके पुण्य के प्रताप से होता है।
सूर्य द्वारा उपकार―सूर्य से कितना उपकार है जगत का।? न निकले सूर्य 8-10 दिन लगातार, खूब घनघोर बादल रहें तो इतने ही दिनों में मनुष्य की क्या हालत हो जायेगी? गर्मी से सूर्य बड़ा तीक्ष्ण निकलने पर यद्यपि वह असह्य सा होता है, किंतु आपको मालूम है यदि तेज गर्मी न पड़े तो आगे की सब ऋतुयें भी सब विषम हो जाती हैं। जिससे अकाल और मारी आदि की नौबत आ जाती हैं तो सूर्य भी बारहों महीना इस जगत के उपकार के लिए प्रवर्तता है। वहाँ भी यह समझिये कि जीवों के पुण्य का उदय है उनका धर्म अस्तित्व में है तो ये भी उपकार के कारण बन जाते हैं। मुख्यता इस पर नहीं देना है, अपने धर्म और पुण्य को महत्त्व देना है। धर्म है तो सभी लोग उपकारी बन जाते हैं और अपने में अधर्म हैं, दुराचार हैं, पाप की प्रवृत्ति रखते हैं, दूसरों का अकल्याण करते हैं तो यहाँ के लोग भी, जनता भी, पड़ोसी भी हमसे विमुख रहेंगे। वहाँ भी उपकार हमें नहीं मिल सकता।
चंद्र व समुद्र द्वारा उपकार―चंद्रमा का भी बड़ा उपकार है। मान लो सूर्य-सूर्य ही चौबीसों घंटा रहे, चंद्र का उदय न आये, चंद्र की शीतल किरणों का समय-समय पर सम्मिलित न हो तो भी सही व्यवस्था नहीं रह सकती। वहाँ भी यह बात लाओ कि हमारा चंद्र भी उपकारी तब होता है जब हममें स्वयं धर्म हो पुण्य हो। पृथ्वी का भी बड़ा उपकार है, समुद्र का भी बड़ा उपकार है। समुद्र का तो यह उपकार है कि जितनी भी वर्षा होती है उसका मूल कारण समुद्र है। वहाँ से भाप उठी आसमान में फैली, फिर वह इकट्ठा होकर समय पर बरसती है और वर्षा से कितना अधिक उपकार है? एक ऐसी किंवदंती है कि एक बार होली ने राखी को निमंत्रण किया। ये पर्व होते हैं एक अलंकार की बात है। होली या राखी कोई देवी या मनुष्य नहीं है तो जब राखी होली के यहाँ पँहुची तो होली के दिनों में कितने हर्ष का शोर रहता है। मकान साफ, वातावरण साफ, न ठंड न गर्मी, लोग खूब मौज से रहते हैं। और अब राखी ने होली को निमंत्रण किया तो होली आयी तो देखा कि कहीं गंदी नाली हैं, कहीं कीचड़ है। सावन के राखी के दिनों में यही होता है। तो होली नाक सिकोड़े। राखी ने सोचा कि होली ने हमारा अपमान किया, तो सोचा कि हम होली से बदला लें। अब अगले वर्ष पानी न बरसा, राखी ने मानो पानी न बरसाया, फिर होली के यहाँ राखी गयी तो वहाँ सारा मामला खराब। जब उपज नहीं तब वह चैन कहाँ से आये? समझिये कि वर्षा का कितना उपकार है?
इंद्रादिकों द्वारा उपकार―इंद्र से महापुरुषों से किसी से जितने भी जो कुछ उपकार हुए हैं वह सब हमारे पुण्य का प्रताप है। अतएव यदि दुनिया से लाभ चाहिए तो अपने को धर्मात्मा बनाओ, पुण्य के कार्य करो, पाप के कार्य मत करो। दूसरों को न सताओ, किसी की जान न लो, झूठ न बोलो, चोरी न करो, कुशील न करो और परिग्रह की तृष्णा न बनाओ। एक प्रभु की भक्तिपूर्वक लोगों की उपकार करके अपना जीवन बिताएँ तो इस भव में भी आनंद मिलेगा और आगे भी आनंद होगा।