वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2048
From जैनकोष
इत्थं तद्भावनानंदसुधास्यंदाभिनंदित: ।
न हि स्वनाद्यवस्थासु ध्यायन्प्रच्यवते मुनि: ।।2048।।
परमात्मत्वभावनाभिवंदित मुनि का स्वरूपप्रतीति से अच्यवन―वीतराग सर्वज्ञ प्रभु की भावना से जो आनंदामृत उत्पन्न हुआ है उसके प्रवाह से आनंद में हुए मुनि स्वप्न आदिक अवस्थाओं में भी ध्यान से च्युत नहीं होते । संसार शरीर भोगों से विरक्ति के कारण और वस्तु के यथार्थस्वरूप के निर्णय के कारण योगी के चित्त में ही एक ज्ञानज्योति की धुनि रहती है और उस धुनि में इतना लीन हो जाते हैं कि स्वप्न आदिक अवस्थाओं में भी ये ध्यान से चिगते नहीं हैं । स्वप्न में भी मूर्तिदर्शन हो, स्वप्न में भी विहार करते हुए प्रभु के दर्शन हों, ऐसी तत्व की धुनि बनती है कि स्वप्न में भी वे दर्शन होते हैं । निद्रा में इंद्रियाँ सुप्त हो जाती हैं और इंद्रिय की सुप्ति के कारण सोने वाले को विदित नहीं रहता कि मैं क्या कर रहा हूं? तो किसी-किसी समय में विकल्पों द्वारा यह कुछ अनुभव करता है, सो यह योगी मुनि स्वप्न में भी प्रभु का ध्यान रखता है ।